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गुणस्थान विवेचन शास्त्ररचना का प्रारंभ करते समय अथवा शास्त्र के समाप्ति के समय किसी देश या राजा का उल्लेख करने का भाव आ जाय तो वह राष्ट्रकथा या राजकथाजन्य प्रमाद हो जाता है।
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प्रथमानुयोग शास्त्र की रचना करते समय अथवा उपदेश देते समय चोर की कथा द्वारा तत्त्व समझाने के कारण चोरकथा नामक प्रमाद होता है। आचार्य महाराज को अपने संघ के व्यवस्थित संचालन के समय किन्हीं मुनि शिष्यों के प्रति उनकी भूमिका के अनुसार संज्वलन कषायजन्य क्रोधादि उत्पन्न होते ही रहते हैं; उन्हें वे कैसे टाल सकते हैं ?
विहार करते समय या ध्यान के लिए बैठते अथवा खड़े रहते समय अनुकूल-प्रतिकूल मिट्टी-कंकड़ादि वस्तुओं के स्पर्श का ज्ञान होता ही रहता है। घ्राणेन्द्रिय से गंध का ज्ञान होने पर आहार ग्रहण करते समय खट्टा-मीठा आदि रस का भी ज्ञान होने से निज शुद्धात्मा के साक्षात् अनुभव से च्युत हो जाने पर ही पंचेंद्रियजन्य प्रमाद हो जाते हैं।
पिछली रयनि में कछु शयन का निद्रारूप प्रमाद मुनिजीवन में घटता ही है। निद्रा के समय उतने काल पर्यंत अर्थात् यथायोग्य अंतर्मुहूर्त काल तक शुद्धोपयोगरूप दशा नहीं रहती है; यही निद्रा प्रमाद है। स्नेह अर्थात् प्रणय, एक मुनिराज को अन्य साधर्मी मुनिराज के प्रति प्रेम / अपनापन होता है, उसे स्नेह नामक प्रमाद कहते हैं; ऐसे ही प्रमाद के अन्य अन्य कार्य मुनिजीवन में कदाचित् परिस्थितिवश तथा हेयबुद्धि से होते रहते हैं।
गृहस्थ जीवन के समान आलस्य में समय बिताना, सो जाना, गप्पें लगाना आदि अशुभोपयोग जनित प्रमाद तो मुनि के जीवन में संभव ही नहीं हैं, पर ऊपर कहे अनुसार प्रमाद के सभी प्रकार मुनि-जीवन में यथाकाल घटित हो सकते हैं। सम्यक्त्व अपेक्षा विचार -
इस प्रमत्तसंयत गुणस्थान में भावलिंगी महामुनिराज को औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व में से कोई एक सम्यक्त्व होता है।
प्रमत्तविरत गुणस्थान
चारित्र अपेक्षा विचार -
इस छठवें गुणस्थान में क्षायोपशमिक चारित्र होता है। वह इसप्रकार है यहाँ प्रत्याख्यानावरण कषाय कर्म के वर्तमानकालीन सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय, उनके ही भविष्य में उदय में आने योग्य सर्वघाति स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम और देशघाति संज्वलन कषायकर्म और नौ नोकषायकर्म का तीव्र उदय रहता है। इसप्रकार चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम घटित होता है। (धवला पुस्तक १, पृष्ठ १७७ )
निश्चयनय से तो चारित्र एक वीतरागभावस्वरूप ही होता है। उसे क्षायोपशमिक आदि नाम तो कर्म का निमित्त जानकर व्यवहारनय से ही • दिये गये हैं । मुनिराज के जीवन में तीन कषाय चौकड़ी के अनुदयपूर्वक व्यक्त वीतरागता तो निश्चय चारित्र है और उसी समय संज्वलन कषायोदय से अट्ठाईस मूलगुणों के पालन का जो शुभराग होता है, उसे निश्चय वीतरागभाव का सहचारी जानकर व्यवहारनय से चारित्र कहते हैं। इसी का कथन मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २२९ पर निम्नप्रकार किया है -
..... सकल कषाय रहित जो उदासीन भाव, उसी का नाम चारित्र है । ..... जो चारित्रमोह के देशघाति स्पर्धकों के उदय से महामंद प्रशस्त राग होता है, वह चारित्र का मल है। कितने ही मंदकषायरूप महाव्रतादि का पालन करते हैं; परंतु उसे मोक्षमार्ग नहीं मानते । काल अपेक्षा विचार -
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जघन्यकाल - एक समय है। कोई मुनिराज ध्यानमय अप्रमत्त गुणस्थान से छूटकर शुभोपयोगरूप छठवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं और वहाँ मात्र एक समय काल व्यतीत होते ही उनकी मनुष्यायु पूर्ण हो जाय तो मरण की अपेक्षा प्रमत्तसंयत गुणस्थान का जघन्यकाल मात्र एक समय घटित होता है।
उत्कृष्टकाल - प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मुनिराज मात्र यथायोग्य एक (मध्यम) अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत ही यहाँ रहते हैं। यह गुणस्थान तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक व्यक्त शुद्ध परिणति सहित शुभोपयोगरूप