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गुणस्थान विवेचन १. प्रमत्तसंयत में संज्वलन तथा नोकषायों का तीव्र उदय होता है।
२. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में संज्वलन कषाय चौकड़ी तथा नोकषायों का मंद उदय रहता है।
३. अपूर्वकरण गुणस्थान में संज्वलन तथा नोकषायों का मंदतर उदय रहता है।
४. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में संज्वलन तथा नोकषायों का मंदतम उदय होता है।
५. सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में मात्र सूक्ष्म लोभ का ही उदय रहता है, अन्य किसी कषाय-नोकषायों का उदय नहीं रहता; क्योंकि शेष सब कषायों की उदय-व्युच्छित्ति नौवें में ही हो जाती है।
वास्तव में तो साधकरूप मुनिजीवन में मात्र संज्वलन और नोकषायों के उदय का ही खेल है। अन्य अनंतानुबंधी आदि तीनों कषायों का तो भावलिंगी मुनिजीवन में उदय तथा तत् जन्य परिणामों का सतत अभाव ही रहता है। मुनिजीवन में कषाय तो मात्र कणिकारूप में ही विद्यमान रहती है। (देखिये, प्रवचनसार गाथा ५, २४६ व २५४ की तत्त्वप्रदीपिका टीका)
प्रथम गुणस्थान से लेकर चौदह गुणस्थानों में कषाय के स्वरूप का सामान्य कथन निम्नप्रकार है -
१. मिथ्यात्व से मिश्र गुणस्थानपर्यंत के तीनों गुणस्थानों में कषाय सुमेरूपर्वत के समान है; क्योंकि अनंतानुबंधी आदि चारों कषायें अपने पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान हैं। वे संसार को बढ़ाने का ही काम कर रही हैं।
२. अविरतसम्यक्त्व गणस्थान में कषाय महापर्वतरूप रह जाती है: क्योंकि अनंतसंसार का कारण अनंतानुबंधी का अभाव हो गया है। अतः कषायों की शक्ति आंशिक क्षीण हो गई है।
३. देशविरत गुणस्थान में कषाय मात्र पर्वतरूप रह जाती है; क्योंकि उदय मात्र दो कषाय (प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन) चौकड़ी का ही है;
और वे भी नाशोन्मुख हो गई हैं; तथापि जीव के पुरुषार्थ की कमी से उनका अस्तित्त्व है।
४. प्रमत्तसंयत से सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानपर्यंत, पाँचों गुणस्थानों में सकलचारित्र के सद्भाव में उत्तरोत्तर नष्ट होता हुआ संज्वलन कषाय तथा
प्रमत्तविरत गुणस्थान नोकषायों का उदय यथाख्यातचारित्र में तारतम्यरूप से बाधक है।
५. उपशांत मोह गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली गुणस्थान पर्यंत के चारों गुणस्थानों में और गुणस्थानातीत सिद्धावस्था में भी मात्र वीतराग भाव ही रहता है, कषायों का सर्वथा अभाव ही है।
प्रमत्तसंयत शब्द का स्पष्टीकरण - प्रमत्त + संयत = प्रमत्तसंयत । प्र = प्रकृष्ट; मत्त = मदयुक्त/असावधान; संयत = संयम।
संकल संयमरूप वीतरागता प्रगट हो जाने से संयत हो जाने पर भी संज्वलन कषाय और नोकषायों के उदयवश विकथा आदि पंद्रह प्रमादों में हेयबुद्धि से प्रवृत्ति होने के कारण स्वरूप में असावधान वृत्ति हो जाने से प्रमत्तसंयत है।
"कुशलेषु अनादरः प्रमादः" (सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ २८९) कुशल कार्योंआत्मकल्याणकारी कार्यों में अनादर-असावधानी प्रमाद है।
विकथा - स्त्रीकथा, भोजनकथा, राज्यकथा और चोरकथा । कषायक्रोध, मान, माया, लोभ । विषय - स्पर्शनेंद्रियादिक के स्पर्श, रस, गंध आदि ५ विषय । निद्रा और स्नेह - ये पंद्रह प्रकार के प्रमाद हैं। इनके ही उत्तर भेद ३७५०० होते हैं।
५५. प्रश्न : क्या ये पंद्रह प्रमाद भावलिंगी मुनिराज के जीवन में भी होते हैं ?
उत्तर : हाँ, पंद्रह प्रमाद छठवें भावलिंगी मुनिराज के ही होते हैं। इसकारण छठवें गुणस्थान का नाम ही प्रमत्तविरत है। इसका विवरण -
चारों विकथाओं में प्रथम क्रम स्वीकथा का है। जब मुनिराज प्रथमानुयोग का शास्त्र लिखते हैं अथवा प्रसंगवश उपदेश में श्रोताओं को वैराग्य पोषक कहानी में किसी चक्रवर्ती की पटरानी के सौंदर्य का वर्णन करते हैं तो उन्हें स्त्रीकथाजन्य प्रमाद हो जाता है।
चरणानुयोग के उपदेश में यह पदार्थ भक्ष्य है, श्रावक को खानेयोग्य है, यह पदार्थ अभक्ष्य है; ऐसा भोजन सम्बन्धी कथन करने में, लिखने में अथवा विचारने में अथवा गुरु के समक्ष आहारचर्या के समय लगे हुए दोषों की बात करके प्रायश्चित्त आदि देने-लेने में भोजनकथाजन्य प्रमाद घटित होता है।