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गुणस्थान विवेचन ३४. प्रश्न : प्रथम बार औपशमिक सम्यक्त्व के होने के बाद एक बार मिथ्यात्व में जाना अनिवार्य है क्या ?
उत्तर : नहीं, प्रथम बार औपशमिक सम्यक्त्व होने पर कुछ जीव मिथ्यात्व में जा सकते हैं; किन्तु मिथ्यात्व में जाना अनिवार्य नहीं है; क्योंकि औपशमिक सम्यक्त्व का काल पूर्ण होने पर जीव क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि भी हो सकते हैं।
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इस विषय के विशेष स्पष्ट खुलासा के लिए धवला पुस्तक ६, पृष्ठ २४२ (१,९,८,९) गाथा १२ तथा जयधवला पुस्तक १२ गाथा १०३ एवं १०५ को टीका के साथ देखिए ।
यहाँ गाथा क्रमांक १०५ का अर्थ एवं टीका का अनुवाद दे रहे हैं - सम्यक्त्व के प्रथम लाभ के अनन्तर पूर्व पिछले समय में मिथ्यात्व ही होता है । अप्रथम लाभ के अनन्तर पूर्व पिछले समय में मिथ्यात्व भजनीय है । । ११-१०५ ।।
यह गाथा सम्यक्त्व को ग्रहण करनेवाले जीव के अनन्तर पूर्व पिछले समय में क्या मिथ्यात्व का उदय है अथवा नहीं है ऐसी पृच्छा होने पर उसका निर्णय करने के लिए आई है । अब इसका अर्थ कहते हैं। यथा- अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के सम्यक्त्व का जो प्रथम लाभ होता है उसके 'अनंतरं पच्छदो' अर्थात् अनन्तरपूर्व पिछली अवस्था में मिथ्यात्व ही होता है; क्योंकि उसके प्रथम स्थिति का अन्तिम समय प्राप्त होने तक मिथ्यात्व के उदय को छोड़कर प्रकारान्तर सम्भव नहीं है।
'लंभस्स अपढमस्स दु' अर्थात् जो नियम से अप्रथम अर्थात् द्वितीयादि बार सम्यक्त्व का लाभ है उसके अनन्तरपूर्व पिछली अवस्था में मिथ्यात्व का उदय भजनीय है। कदाचित् मिथ्यादृष्टि होकर वेदकसम्यक्त्व या उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त करता है और कदाचित् सम्यग्दृष्टि होकर वेदसम्यक्त्व को प्राप्त करता है यह उक्त गाथा सूत्र का भावार्थ है।
( जयधवला पुस्तक १२, पृष्ठ ३१७) ३५. प्रश्न : जिसने आज ही सम्यक्त्व की प्राप्ति की है और जिसने अनेक वर्षों से पहले सम्यक्त्व की प्राप्ति की है इन दोनों जीवों की श्रद्धा की व चारित्र की शुद्धि में कुछ अंतर होगा या नहीं ?
अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान
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उत्तर : सामान्य कथन की अपेक्षा से दोनों को मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी एक ही कषाय चौकड़ी के अनुदयपूर्वक व्यक्त वीतरागता समान रहती है; तथापि शेष तीन कषाय चौकड़ी के मंद, मंदतर, मंदतम उदयानुसार तथा व्यक्तिगत पुरुषार्थ के अनुसार अंतर भी रहता है। चारित्र अपेक्षा विचार -
सम्यग्दर्शन अकेला नहीं होता। उसके साथ ज्ञान और चारित्र भी सम्यक् होते ही हैं; इतना ही नहीं आत्मा के अन्य अनंत गुणों में भी आंशिक शुद्धता प्रगट होती है। सर्व गुणांश ते सम्यक्त्व - ऐसा उल्लेख भी आगम में मिलता है। इसका भाव यह है कि सम्यक्त्व होने पर आत्मा के चारित्र आदि अनंत गुणों में सम्यक्पना नियम से हो जाता है। व्रतरूप संयम न होने से चौथे गुणस्थानवर्ती जीव को अविरत कहा है; फिर भी सम्यग्दर्शन का अविनाभावी अनन्तानुबंधी के अभावपूर्वक होनेवाला सम्यक्त्वाचरण / स्वरूपाचरण चारित्र तो होता ही है।
अणुव्रतों या महाव्रतों का पालन न होने से चतुर्थ गुणस्थानवर्ती को चरणानुयोग असंयमी कहता है। गुणस्थान यह विषय करणानुयोग का है। और करणानुयोग इस सम्यग्दृष्टि को अविरत ही कहता है।
अब करणानुयोग की ही अन्य अपेक्षाओं से थोड़ा विचार करते हैं। चारित्रमोहनीय कर्म की अनंतानुबंधी कषाय चौकड़ी इस चौथे गुणस्थान में नियम से नहीं है। इस कषाय चौकड़ी के अभाव से चारित्र गुण में आंशिक निर्मलता या अल्प वीतरागता यहाँ चौथे गुणस्थान में व्यक्त होती है । अत: चारित्र का बीज / अंश यहाँ प्रगट हो गया है। सूक्ष्म विषयों का कथन करनेवाले करणानुयोग शास्त्र की दृष्टि से सतर्क सिद्ध होने से यहाँ चारित्र प्रमाणित ही है। तथा इसके बाधक कारण का भी अभाव है।
द्रव्यानुयोग की अपेक्षा भी चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र हैही। वस्तुतः तो स्वरूप में आचरण करना ही चारित्र है। इसी विषय को आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने प्रवचनसार ग्रंथ की गाथा क्रमांक सात की टीका में स्पष्ट कहा है – “स्वरूप में चरण करना ( रमना ) सो चारित्र है । स्वसमय में प्रवृत्ति करना (अपने स्वभाव में प्रवृत्ति करना) ऐसा इसका अर्थ है।" आचार्य श्री जयसेन ने भी कहा है- शुद्धचैतन्य स्वरूप में चरण / प्रवृत्ति / लीनता चारित्र है ।