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गुणस्थान विवेचन अप्रत्याख्यानावरण कषाय कर्म के उदय से असंयत होने पर भी पाँच, छह या सात (अनन्तानुबन्धी की चार और दर्शनमोहनीय की तीन) प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम की दशा में होनेवाले जीव के औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भावों को अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं।
प्रथम अप्रत्याख्यान' शब्द का अर्थ करेंगे। 'अ' शब्द का अर्थ किंचित् । 'प्रत्याख्यान' शब्द का अर्थ त्याग है। जो कषायकर्म किंचित् भी त्याग न होने में निमित्त है, उसे अप्रत्याख्यानावरण कषायकर्म कहते हैं।
जैसे - जीव जब अपने पुरुषार्थ की हीनता से किंचित् भी अर्थात् अणुव्रतरूप भी संयमासंयम भाव प्रगट नहीं करता अथवा महाव्रतरूप संयमभाव भी प्रगट नहीं करता तब अप्रत्याख्यानावरणादि कषाय कों का निमित्तरूप से उदय रहता ही है। ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव को अविरतसम्यग्दृष्टि कहते हैं। सम्यक्त्व अपेक्षा विचार -
चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में नाना जीवों की अपेक्षा से औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक - ये तीनों सम्यक्त्व रह सकते हैं। एक जीव को एक समय में एक ही सम्यक्त्व रहता है। तीनों सम्यक्त्वों में यथार्थ श्रद्धारूप धर्म की अपेक्षा से समानता होने पर भी अन्य अपेक्षाओं से असमानता भी है। प्रथम समानता को कहते हैं -
१. तीनों ही सम्यक्त्वी के नवीन कर्मों के बंध की अपेक्षा से समानता है; तीनों सम्यक्त्वों में ४१ प्रकृतियों का बंध नहीं होता।
२. तीनों सम्यक्त्वी चतुर्थ गुणस्थानवर्ती ही हैं।
अब असमानता को कहते हैं- प्रथम क्षायिक सम्यक्त्वी की विशेषता को बताते हैं -
१. क्षायिक सम्यक्त्व के पहले दो बार त्रिकरण परिणाम होते हैं। प्रथम त्रिकरण परिणाम द्वारा अनंतानुबंधी चतुष्क का विसंयोजन होता है, फिर दर्शनमोहनीय के नाश के लिए त्रिकरण परिणाम होता है। जबकि
औपशमिक सम्यक्त्व के लिए एक बार ही त्रिकरण परिणाम आवश्यक रहता है।
अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान
___१११ २. औपशमिक सम्यक्त्वी के सम्यक्त्व विरोधी सातों प्रकृतियों की सत्ता बनी रहती है। एवं काल भी अंतर्मुहुर्त मात्र है, जबकि क्षायिक सम्यक्त्वी के सम्यक्त्व-विरोधी सातों प्रकृति की सत्ता नहीं है और काल सादि अनंत है, अत: नित्य है।
३. क्षायिक सम्यग्दृष्टि समय-समय प्रति गुणश्रेणी निर्जरा करता है।
४. पूर्व में मनुष्य या तिर्यंचायु का बंध न होने की दशा में उसी भव में अथवा तीसरे ही भव में मोक्ष प्राप्त करता है।
अब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की अपेक्षा असमानता को कहते हैं - १. इस सम्यक्त्व में सम्यक्त्वमोहनीय का उदय होने से चल-मल
अगाढ दोष होते हैं। २. इसके नाश होने में देर नहीं लगती। ३. यह सम्यक्त्व पल्य के असंख्यातवें भाग बार छूट सकता है। ४. इसके लिए त्रिकरण परिणाम आवश्यक नहीं हैं।
५. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में गुणश्रेणी निर्जरा नहीं होती, इस कारण ही इस सम्यक्त्व के साथ श्रेणी चढ़ने का अपूर्व पुरुषार्थ नहीं हो सकता। जो, जितना और जैसा भेद है उसे भी स्वीकार करना चाहिए। (उपशम आदि की परिभाषाएँ प्रश्नोत्तर विभाग में हैं, वहाँ अवलोकन करें।) सम्यक्त्व का काल -
औपशमिक सम्यक्त्व का जघन्य काल तथा उत्कष्ट काल भी अंतर्महर्त ही है; तथापि जघन्य काल से उत्कृष्ट काल संख्यात गुणा अधिक है। अंतर्मुहूर्त काल के असंख्यात भेद हैं; इसलिए उसके छोटा अंतर्मुहूर्त, बड़ा अंतर्मुहूर्त, मध्यम अंतर्मुहूर्त ऐसे अनेक भेद हैं। ___क्षायोशमिक सम्यक्त्व का जघन्य काल मात्र अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल ६६ सागर है। अथवा एक अंतर्महर्त कम एक ६६ सागर के बाद एक अंतर्मुहूर्त के लिए मिश्र गुणस्थान में आकर पुनः क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के साथ ६६ सागर तक रह सकता है। यथायोग्य अंतर्महर्त अधिक एक समय, दो समय आदि से लेकर अंतर्मुहूर्त कम ६६ सागर पर्यंत बीच में होनेवाले काल के सर्व भेद क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के मध्यमकाल के प्रकार हो सकते हैं।