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________________ ८० मिथ्यात्व गुणस्थान गुणस्थान विवेचन (१) मिथ्यात्व गुणस्थानी द्रव्यलिंगी, (२) चतुर्थ गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी और (३) पंचम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी। प्रथम, चतुर्थ एवं पंचम गुणस्थानवर्ती को द्रव्यलिंगी कहते हैं; इसके लिए धवला पुस्तक ४, पृष्ठ २०८ पर स्पष्ट खुलासा आया है, उसका अवलोकन करे। उसका संक्षेप में कथन निम्नानुसार है- "समाधान - यह कोई दोष नहीं; क्योंकि यद्यपि नवग्रैवेयकों में द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीव उत्पन्न होते हैं। यही विषय त्रिलोकसार गाथा ५४५ में भी आया है। वहाँ द्रव्यलिंगी को निग्रंथ शब्द द्वारा कहा गया है। भावपाहुड गाथा २२ में - १०५ क्षुल्लक श्री सहजानन्दजी वर्णी ने प्रवचनों में प्रथम गुणस्थान से पाँचवे गुणस्थान पर्यंत पाँचों गुणस्थानों में द्रव्यलिंगी मुनिपने का स्वीकार किया है। (पृष्ठ-३०३) सासादन गुणस्थानवर्ती तथा मिश्र गुणस्थानवर्ती को भी द्रव्यलिंगी मुनिराज कह सकते हैं; परंतु इन दोनों गुणस्थानों का काल अति अल्प होने से द्रव्यलिंगियों में उनको मुख्यता से नहीं लिया गया है। छठवें गुणस्थानवर्ती को जो द्रव्यलिंग होता है; वह द्रव्यलिंग भावलिंग के साथवाला है। अत: उन्हें शास्त्र में द्रव्यलिंगी की संज्ञा नहीं दी गई है। क्योंकि वह द्रव्यलिंग भावलिंग के साथ सुमेलवाला है। वास्तविकरूप से सोचा जाय तो चौदहवें गुणस्थान के अंतिम समय पर्यंत द्रव्यलिंग रहता है। १४. प्रश्न : परिणामों से जो जीव चौथे और पाँचवें गुणस्थानवर्ती हैं, वे जीव सम्यग्दृष्टि तो हैं ही और बाह्य में २८ मूलगुणों का निरतिचार पालन भी करते हैं; तथापि आपने उन्हें द्रव्यलिंगी क्यों कहा ? उत्तर : अन्तरंग में अर्थात् परिणामों से चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि एवं पंचम गुणस्थानवर्ती और बाह्य में २८ मूलगुणों के पालन करनेवाले भावलिंगी नहीं होते हैं; क्योंकि उनको आत्मानुभूतिरूप सम्यग्दर्शन के साथ तीन कषाय चौकड़ी के अनुदय पूर्वक उत्पन्न वीतरागतारूप शुद्धता नहीं होती; इसलिए उन्हें द्रव्यलिंगी कहा है। द्रव्यलिंगी का अर्थ सर्वत्र मिथ्यादृष्टि नहीं होता। १५. प्रश्न : ऐसे द्रव्यलिंगी मुनिराज के साथ सच्चे श्रावक को कैसा व्यवहार रखना चाहिए? ____उत्तर : यदि अट्ठाईस मूलगुणों का आचरण आगमानुकूल हो तो द्रव्यलिंगी मुनिराज के लिए क्षायिक सम्यग्दृष्टि तथा पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक नमस्कारादि विनय व्यवहार तथा आहारदान आदि क्रियायें हार्दिक परिणामों से करे; क्योंकि नमस्कार आदि व्यवहार है और मुनिराज का व्रत पालन भी व्यवहार है। सूक्ष्म अंतरंग परिणामों का पता लग भी नहीं सकता; क्योंकि वे तो केवलज्ञानगम्य ही होते हैं। व्यवहारी जनों के लिए द्रव्यलिंगी भी पूज्य हैं। (योगसार-प्राभृत अध्याय ५ श्लोक २४६, मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २८३-२८४) आगमन - १. प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती भावलिंगी संत भी अनादिकालीन कुसंस्कारों के पुन: प्रगट होने पर विपरीत पुरुषार्थ से निज शुद्धात्मा का अवलंबन छूटने से तथा निमित्तरूप में यथायोग्य कर्मों का उदय आने से सीधे मिथ्यात्व गुणस्थान में आ सकते हैं। २. पंचम गुणस्थानवर्ती विरताविरत श्रावक अथवा पंचम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज भी अपने हीन पुरुषार्थरूप अपराध से तथा उसी समय निमित्तरूप में यथायोग्य कर्मों के उदय से सीधे मिथ्यात्व गुणस्थान में आ सकते हैं। ३. क्षायिक सम्यग्दृष्टि को छोड़कर अन्य दोनों - औपशमिक तथा क्षायोपशमिक अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के जब श्रद्धा में विपरीतता आती है तथा उसी समय मिथ्यात्व का उदय आने पर वे जीव सीधे मिथ्यात्व गुणस्थान में आ सकते हैं। ४. मिश्र गुणस्थानवर्ती भी मिथ्यात्व में आ सकते हैं। ५. सासादन सम्यग्दृष्टि तो मिथ्यात्व गुणस्थान में आते ही हैं। १६. प्रश्न : मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती साधक किस साधना द्वारा अविरत सम्यक्त्व आदि उपरिम गुणस्थानों को प्राप्त करते हैं ? उत्तर : मिथ्यादृष्टि जीव स्व-पर भेदज्ञानपूर्वक अपने त्रिकाली निज शुद्धात्मा के आश्रयरूप महान अपूर्व पुरुषार्थ से दर्शनमोहादि कर्म का भी अभाव होने से सम्यग्दर्शनादि प्राप्त कर लेते हैं। इसप्रकार मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती साधक उपरिम गुणस्थानों को प्राप्त करते हैं।
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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