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________________ ७८ गुणस्थान विवेचन गमनागमन शब्द का प्रयोग किया गया है। सभी गुणस्थानों में गमनागमन शब्द का अर्थ ऐसा ही समझना चाहिए। गमन - १. मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज यदि अधिक से अधिक पुरुषार्थ करके सीधे उपरिम गुणस्थान में जायेंगे तो वे सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में जा सकते हैं। अर्थात् प्रथम बार में ही वे आधे गुणस्थानों को पार कर जाते हैं; क्योंकि कुल मिलाकर गुणस्थान चौदह ही हैं और उन्होंने तो प्रथम बार में ही सातवाँ अप्रमत्तविरतगुणस्थान प्राप्त कर लिया है। सादि या अनादि मिथ्यादृष्टि होने पर भी जो मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनिराज हों, वे अपने निज शुद्धात्मा के आश्रय करने का विशिष्ट पुरुषार्थ करने पर एवं बाधक कर्मों का उदयाभाव होने से अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में प्रवेश करते हैं। वे सातिशय पुरुषार्थी मुनिराज प्रथम समय में तो मिथ्यादृष्टि थे और दूसरे ही समय में मिथ्यात्व कर्म तथा मिथ्यात्व परिणाम का नाश होने से उसी समय वे अनंतानुबंधी चतुष्क, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण चतुष्क कर्मों का उदयाभावी क्षय होने के कारण अर्थात् वीतरागता व्यक्त होने से भावलिंगी मुनिराज हो जाते हैं। अब तो इन्हें मात्र चारित्रमोहनीय में से संज्वलन कषाय चतुष्क और नौ नोकषाय कर्म का उदय तथा तज्जन्य परिणाम ही शेष रह गया है। २. कोई प्रथम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिवर मिथ्यात्व तथा तीन कषाय चौकड़ी का अभाव न होने पर भी निजशुद्धात्मा के ध्यानरूप पुरुषार्थ से इस मिथ्यात्व गुणस्थान से सीधे विरताविरत गुणस्थान में भी गमन कर सकते हैं। ३. अथवा कोई द्रव्यलिंगी श्रावक प्रथम गुणस्थान से शुद्ध आत्मा के अवलंबन के बल से सीधे पाँचवें विरताविरत गुणस्थानवर्ती हो जाते हैं। ४. कोई द्रव्यलिंगी मुनिराज, द्रव्यलिंगी श्रावक अथवा अव्रती भद्र मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व गुणस्थान से अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में जा सकते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान ५. कोई सादि मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनिराज, द्रव्यलिंगी श्रावक अथवा भद्र मिथ्यादृष्टि हो तो वे मिथ्यात्व गुणस्थान से तीसरे / मिश्र गुणस्थान में प्रवेश कर सकते हैं। ११. प्रश्न: आपने तीसरे गुणस्थान में प्रवेश करनेवाले के लिए सादि मिथ्यादृष्टि, यह विशेषण क्यों लगाया ? क्या कोई अनादि मिथ्यादृष्टि तीसरे गुणस्थान में प्रवेश नहीं करेगा ? उत्तर : अनादि मिथ्यादृष्टि के पास सम्यग्मिथ्यात्व दर्शनमोह कर्म की सत्ता ही नहीं है। अतः वह तीसरे गुणस्थान में प्रवेश नहीं कर सकता । सम्यक्त्व की उत्पत्ति के प्रथम समय में मिथ्यात्व के तीन टुकड़े होने का नियम है। १२. प्रश्न : मिथ्यात्व गुणस्थान से कोई जीव सातवें में, कोई पाँचवें में, कोई चौथे में अथवा कोई तीसरे गुणस्थान में गमन करते हैं, ऐसा भेद क्यों / कैसे होता है ? उत्तर : प्रत्येक जीव की अपनी-अपनी पात्रता भिन्न-भिन्न होती है, त्रिकाली शुद्धात्मा का आश्रय करनेरूप पुरुषार्थं हीनाधिक होता है, उदय में आनेवाले कर्म भी भिन्न-भिन्न ही होते हैं, भवितव्य भी स्वतंत्र होता है; कोई जीव किसी अन्य जीव के, पुद्गलादि के अथवा भगवान के भी आधीन नहीं है। इसलिए उनका गुणस्थान में गमनरूप कार्य भी स्वतंत्र रीति से पर्यायगत योग्यता के अनुसार होता रहता है। एक ही समवशरण अर्थात् धर्मसभा में देव, मनुष्य, तिर्यंच - तीन गति के जीव एक ही तीर्थंकर भगवान का उपदेश सुनते हैं; तथापि उन श्रोताओं में भी उनकी अपनी-अपनी पात्रता के अनुसार ही वे महाव्रतों या अणुव्रतों को ग्रहण करते हैं, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति करते हैं तीसरे गुणस्थान के पात्र बनते हैं या अंतरंग में तत्त्व का विरोध करते हैं। इससे ही प्रत्येक द्रव्य, गुण और पर्याय की स्वतंत्रता सिद्ध होती है। १३. प्रश्न : द्रव्यलिंगी मुनिराजों के कितने भेद हैं ? उत्तर : द्रव्यलिंगी मुनिराजों के मुख्यता से तीन भेद होते हैं।
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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