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गुणस्थान विवेचन
गुणस्थान विभाजन
तथा सुगम एवं एकमात्र उपाय है।
६. प्रश्न : मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय चौकड़ी का नाश भी तो करना चाहिए ना ?
उत्तर : आपका यह कहना व्यवहारनय की अपेक्षा से सत्य ही है। वास्तविकरूप से विचार किया जाए तो त्रिकाली निज शुद्धात्मा का आश्रय लेने पर मिथ्यात्वादि कर्मों का नाश तो स्वयमेव हो ही जाता है; उसमें जीव को कुछ करना नहीं पड़ता। ज्ञानावरणादि कर्म तो पुद्गल की पर्याय है; उसमें तो जीव कुछ कर ही नहीं सकता।
तत्त्वनिर्णय करना, अपनी श्रद्धा को यथार्थ रीति से सम्यकरूप परिणमित करना और निज शुद्धात्मा में रमणतारूप चारित्र प्रगट करना -ये तो जीवद्रव्य की अवस्थायें हैं. उन्हें जीव कर सकता है: क्योंकि ये कार्य जीव की सीमा में आते हैं। अन्य जीवों की अवस्थायें और पुद्गलादि द्रव्यों की अवस्थाएँ जीव की सीमा में नहीं आते । अत: उनमें जीव कुछ भी नहीं कर सकता।
७. प्रश्न : जब यहाँ गुणस्थान की चर्चा प्रारंभ की है तो बीच-बीच में यह आत्मा की चर्चा क्यों/कहाँ से आ जाती है ? सीधी करणानुयोग सापेक्ष बात करो न?
उत्तर : भाई ! आप भी थोड़ा शांति से सोचो न ! तुम्हें आत्मा की चर्चा से इतनी अरुचि क्यों है ? अरे ! गुणस्थान भी तो आत्मा के ही होते हैं। हम तो सोच-विचार कर ही कह रहे हैं। अनुयोग के अनुसार कथन तो होगा ही; इसमें हमारा आपसे अथवा अन्य किसी से कुछ भी मतभेद नहीं है। कथन-पद्धति के कारण से केवलज्ञान प्रणीत शास्त्र चार अनुयोगों में विभक्त है; चारों अनुयोगों का तात्पर्य एक वीतरागता ही है । (पंचास्तिकाय, गाथा१७२) सम्यग्दर्शन प्रगट करने का पुरुषार्थ तो मुख्यता से एक द्रव्यानुयोग में कथित निज शुद्ध ज्ञायक भगवान आत्मा के आश्रय से ही होता है।
भिन्न-भिन्न अनुयोगों के अनुसार धर्म प्रगट करने का पुरुषार्थरूप उपाय भिन्न-भिन्न नहीं है, एक ही है और वह है त्रिकाली निज शुद्धात्मा का आश्रय करना। ......“करणानुयोग के अनुसार आप उद्यम करें तो
हो नहीं सकता। करणानयोग में तो यथार्थ पदार्थ बताने का मुख्य प्रयोजन है। ..... आप कर्मों के उपशमादि करना चाहें तो कैसे होंगे? आप तो तत्त्वादि का निश्चय करने का उद्यम करें। उससे स्वयमेव ही उपशमादि सम्यक्त्व होते हैं...... । (मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-२७७)
८. प्रश्न : सम्यग्दर्शन के पूर्व करणलब्धि तो चाहिए ना ? आप तो उसकी बात ही नहीं करते?
उत्तर : हाँ ! करणलब्धि चाहिए; यह आपका कहना ठीक है।
सम्यग्दर्शन के पूर्व क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण - ये पाँचों लब्धियाँ अवश्य होती हैं। इनमें करणलब्धि साधकतम होती है। अर्थात् करणलब्धि प्राप्त होने पर सम्यग्दर्शन नियम से प्रगट होता ही है। ऐसा नियम अन्य चारों लब्धियों के साथ नहीं है। इस करणलब्धि के प्राप्ति का उपाय भी एक त्रिकाली निज शुद्धात्मा का आश्रय लेना ही है, अन्य नहीं।
यही उपाय मोक्षमार्ग/रत्नत्रय की प्राप्ति का है। जैसे बिल्ली को कोई कैसे भी जमीन पर फेंके, वह नियम से अपने चारों पैरो पर ही खड़ी होती है; वैसे ही चारों अनुयोगों में से किसी भी अनुयोग को पढ़ो, सभी में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उपाय मात्र निज भगवान आत्मा का आश्रय करना ही बताया है।
- ऐसा विचार किया कि...वहाँ अपने प्रयोजनभूत मोक्षमार्गके, देव-गुरु-धर्मादिक के. जीवादितत्त्वों के तथा निज-पर के और अपने को अहितकारी-हितकारी भावों के इत्यादि के उपदेश से सावधान होकर ऐसा विचार किया कि अहो ! मुझे तो इन बातों की खबर ही नहीं, मैं भ्रम से भूलकर प्राप्त पर्याय में ही तन्मय हुआ, परन्तु इस पर्याय की तो थोड़े ही काल की स्थिति है तथा यहाँ मुझे सर्व निमित्त मिले हैं, इसलिए मुझे इन बातों को बराबर समझना चाहिए, क्योंकि इनमें तो मेरा ही प्रयोजन भासित होता है। ऐसा विचारकर जो उपदेश सुना उसके निर्धार करने का उद्यम किया।
- मोक्षमार्गप्रकाशक, अध्याय-७, पृष्ठ-२५७