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________________ गुणस्थान विभाजन गुणस्थान विवेचन होता हो तो पाँचवां संयतासंयत गुणस्थान है; ऐसा नि:संकोच समझ लेना चाहिए। ४. यदि मात्र सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की ही निःशंक श्रद्धा हो. जीवन में सातों व्यसनों में से कोई व्यसन न हो; अन्याय, अनीति, अभक्ष्य का त्याग हो; जीवन में आगम कथित अष्टमूलगुणों का सहजरूप से पालन हो और मिथ्यात्व तथा अनंतानबंधी कषाय परिणाम के अभावपूर्वक आत्मानुभूतिरूप अतींद्रिय आनन्द का स्वाद किसी के जीवन में आता हो तो अपने को चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि समझना चाहिए। ___ यदि देव-शास्त्र-गुरु का भी आगमानुसार लक्षण दृष्टि से यथार्थ और हार्दिक निर्णय न हो तो उसे सम्यक्त्व प्रगट करने की पात्रता ही नहीं है; तब फिर सम्यक्त्व होने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता, वह तो गृहीत मिथ्यादृष्टि है। उसे आगम में तीव्र पापी, अज्ञानी और मूढ अर्थात् मूर्ख कहा है। ४. प्रश्न : इस विवेचन से हम मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती हैं, ऐसा लग रहा है। ऐसी स्थिति में हमें सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिये क्या करना चाहिए? उत्तर : मिथ्यात्व गणस्थान नहीं चाहते हो तो मिथ्यात्व का अभाव करके सम्यग्दृष्टि होने के लिए सात तत्त्वों का हेय, ज्ञेय तथा उपादेय बुद्धि से यथार्थ निर्णय करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। यह भी एक अपेक्षा समझ लेना चाहिए कि चिंता करने की कुछ आवश्यकता नहीं है; क्योंकि जीवन में सच्चा निर्णय होना भी बहुत महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। इस विषय के विशेष स्पष्टीकरण के लिए मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रंथ का पृष्ठ क्रमांक ३१२ का निम्न अंश देखें - "तथा इस अवसर में जो जीव पुरुषार्थ से तत्त्वनिर्णय करने में उपयोग लगाने का अभ्यास रखें, उनके विशुद्धता बढ़ेगी; उससे कर्मों की शक्ति हीन होगी, कुछ काल में अपने आप दर्शन मोह का उपशम होगा; तब तत्त्वों की यथावत् प्रतीति आयेगी। सो इसका तो कर्त्तव्य तत्त्वनिर्णय का अभ्यास ही है, इसीसे दर्शनमोह का उपशम तो स्वयमेव होता है; उसमें जीव का कर्त्तव्य कुछ नहीं है। तथा उसके होने पर जीव के स्वयमेव सम्यग्दर्शन होता है। और सम्यग्दर्शन होने पर श्रद्धान तो यह हुआ कि 'मैं आत्मा हूँ, मुझे रागादिक नहीं करना; परन्तु चारित्रमोह के उदय से रागादिक होते हैं। वहाँ तीव्र उदय हो तब तो विषयादि में प्रवर्तता है और मन्द उदय हो तब अपने परुषार्थ से धर्मकार्यों में व वैराग्यादि भावना में उपयोग को लगाता है; उसके निमित्त से चारित्र मोह मन्द हो जाता है; - ऐसा होने पर देशचारित्र व सकलचारित्र अंगीकार करने का पुरुषार्थ प्रगट होता है। तथा चारित्र को धारण करके अपने पुरुषार्थ से धर्म में परिणति को बढाये वहाँ विशद्धता से कर्म की शक्ति हीन होती है, उससे विशुद्धता बढ़ती है और उस कर्म की शक्ति अधिक हीन होती है। इसप्रकार क्रमसे मोह का नाश करे तब सर्वथा परिणाम विशुद्ध होते हैं, उनके द्वारा ज्ञानावरणादिक का नाश हो तब केवलज्ञान प्रगट होता है। पश्चात् वहाँ बिना उपाय अघाति कर्म का नाश करके शुद्ध सिद्धपद को प्राप्त करता है।" यदि कोई जीव मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती हो और भ्रम से अपने को सम्यग्दृष्टि अथवा पंचमादि गुणस्थानवर्ती मानता हो तो वह मोक्षमार्ग का पुरुषार्थ भी नहीं कर सकता; दुर्लभ मनुष्य जीवन भ्रम में व्यर्थ निकल जाता है। यदि यथार्थ निर्णय होता तो अच्छा ही है; उससे डरने की बात ही क्या है ? सच्चे उपाय का अवलंबन लेना श्रेष्ठ तथा श्रेयस्कर है। ५. प्रश्न : मिथ्यात्व गुणस्थान के अभाव करने का सच्चा उपाय क्या है? उत्तर : जिनेंद्र कथित तत्त्वानुसार सदाचारी जीवनयापन करते हुए प्रथम सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का यथार्थ ज्ञान करो। पश्चात् अध्यात्म शास्त्र के अध्ययन से आत्मस्वभाव का निर्णय करना। जिसे एक बार निज शुद्धात्मा का निर्णय हो जाता है, वह व्यक्ति स्वयमेव सम्यग्दर्शन आदि धर्म प्रगट करने की कला भी समझ लेता है। निज शुद्धात्म स्वभाव का स्वीकार होना ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट करने का सच्चा-सरल
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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