SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थान विभाजन गुणस्थान विवेचन २. पाँचवें से बारहवें गुणस्थान पर्यंत आठ गुणस्थान चारित्र मोहनीय कर्म के उदय-अनुदय की मुख्यता से हैं। ३. तेरहवाँ गुणस्थान केवलज्ञान और योग के सद्भाव की मुख्यता से है। ४. चौदहवाँ गुणस्थान केवलज्ञान का सद्भाव और योग के असद्भाव की मुख्यता से है। भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से गुणस्थानों का विभाजन - ५. अविरत और विरत की अपेक्षा - प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान पर्यंत के सर्व जीव अविरत ही हैं। पाँचवां गुणस्थान विरताविरत का है। छठवें प्रमत्तविरत से लेकर अप्रमत्तादि ऊपर के सभी गुणस्थानवी जीव विरत ही हैं। ६. अज्ञानी (मिथ्यात्वी) और ज्ञानी की अपेक्षा - प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर दूसरे सासादन गुणस्थानपर्यंत सर्व जीव मिथ्या श्रद्धान के धारक होने से अज्ञानी हैं; क्योंकि उन्हें सम्यग्दर्शन नहीं है। विशेष इतना है कि तीसरे गुणस्थानवर्ती को मिश्र श्रद्धानी एवं मिश्र ज्ञानी भी कहा गया है। दूसरे-तीसरे गुणस्थानवी जीव भव्य होने से उनका मोक्ष जाना भी निश्चित ही है। अविरतसम्यक्त्व नामक चौथे गुणस्थान से अयोगकेवली गुणस्थान पर्यंत सर्व जीव नियम से ज्ञानी अर्थात् सम्यग्ज्ञानी/यथार्थ ज्ञानी हैं; क्योंकि ये वस्तुस्वरूप को यथार्थ जानते हैं, उन्हें निज आत्मा का भी ज्ञान तथा अनुभव है। जो सर्वज्ञ हो गए हैं/अरहंत परमात्मा बन गए हैं, उनके ज्ञान का सम्यक्पना तथा चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थानवर्ती अव्रती श्रावक के ज्ञान का सम्यकूपना समान है - इन दोनों के ज्ञान के सम्यकपने में किंचित् भी अंतर नहीं है। इसी कारण से सम्यग्दृष्टि भी शास्त्र का यथार्थ वक्ता है। उसका उपदेश भी सम्यक्त्व की उत्पत्ति में निमित्त कहा गया है । यहाँ सर्वज्ञ भगवान केवलज्ञानी अर्थात् पूर्ण ज्ञानी हैं और चौथे गुणस्थानवर्ती जीव सम्यग्ज्ञानी होने पर भी अल्पज्ञ हैं, यह जो अंतर है; उसे मानना आवश्यक ही है। ७. छद्मस्थ और सर्वज्ञ की अपेक्षा - प्रथम गणस्थान से लेकर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान पर्यंत के बारह गुणस्थानवर्ती सर्व जीव नियम से छद्मस्थ ही हैं। मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ज्ञान के धारक मुनिराज भी नियम से छद्मस्थ अर्थात् अल्पज्ञ ही हैं। तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थानवर्ती परमगुरु अर्थात् अरहंत परमात्मा केवलज्ञान के धारक होते हैं; अत: वे सर्वज्ञ ही हैं। सर्वज्ञ जीव पूर्णज्ञानी होते हैं। क्षायोपशमिक ज्ञान कभी पूर्ण नहीं होता है और केवलज्ञान कभी अपूर्ण नहीं होता; ऐसा नियम है। ८. श्रावक की अपेक्षा - एकदेश धर्मधारक साधक जीव, अविरतसम्यक्त्वी और देशविरत गुणस्थानवी जीवों को श्रावक कहते हैं। चौथे गुणस्थानवर्ती असंयमी हैं और पंचमगुणस्थानवर्ती संयमासंयमी हैं। ९. गुरुपद की अपेक्षा - तीनप्रकार का विभाजन हो सकता है - (१) प्रमत्ताप्रमत्त गुरु - छठवें प्रमत्त एवं सातवें स्वस्थान अप्रमत्त गुणस्थानों में सतत झूलनेवाले भावलिंगी संत प्रमत्ताप्रमत्त गुरु हैं। (२) अप्रमत्त गुरु - सातवें सातिशय अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानपर्यंत श्रेणी में मोह की उपशमना या क्षपणा करनेवाले ध्यानारूढ़ महामुनिराज अप्रमत्त गुरु हैं। (३) परमगुरु - तेरहवें तथा चौदहवें गणस्थानों में केवलज्ञानादि क्षायिक पर्यायों से तथा परम औदारिक शरीर सहित शोभायमान परम पवित्र आत्मा, जिसे अरहंत परमात्मा भी कहते हैं; वे परमगुरु हैं। १०. श्रेणी की अपेक्षा - श्रेणी दो प्रकार की है, उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। ____ उपशमश्रेणी के (१) अपूर्वकरण (२) अनिवृत्तिकरण (३) सूक्ष्मसाम्पराय (४) उपशांतमोह ये चार गुणस्थान हैं। उपशमक मुनिराज चारित्र-मोहनीय का उपशम करते हैं और उपशांत मोह गुणस्थान से नियम से नीचे गिरते हैं। क्षपकश्रेणी के (१) अपूर्वकरण (२) अनिवृत्तिकरण (३) सूक्ष्मसाम्पराय और (४) क्षीणमोह ये चार गुणस्थान हैं। क्षपक मुनिराज चारित्र मोहनीय का
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy