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गुणस्थान परिभाषा
गुणस्थान विवेचन परिभाषा में आया हुआ “अवस्था को" यह शब्द हमें स्पष्ट बता रहा है कि गुणस्थान पर्याय ही है। “अवस्था को" इस शब्द के पहले 'तारतम्यरूप' शब्द है। इसका अर्थ होता है हीनाधिकता । जैसे अच्छा के लिए अंग्रेजी में गुड कहते हैं। अधिक अच्छा के लिए बेटर और सर्वोत्तम के लिए बेस्ट शब्द का उपयोग करते हैं। वैसे ही संस्कृत भाषा में तर एवं तम शब्दों का यथास्थान उपयोग किया जाता है। यहाँ तर तथा तम शब्द का संबंध श्रद्धा और चारित्र गुण की पर्यायों से है। इन दोनों गुणों की होनेवाली मिथ्या, मिश्र या सम्यक् ऐसी तारतम्यरूप अवस्था अर्थात् पर्याय को गुणस्थान कहते हैं।
उपर्युक्त कथन से यह तात्पर्य समझना चाहिए कि न जीव द्रव्य को गुणस्थान कहते हैं और न श्रद्धा तथा चारित्र गुणों को । गुणस्थान तो श्रद्धा
और चारित्र गुण की शुद्धाशुद्ध पर्यायों को कहते हैं। इससे हमें यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जीव द्रव्य को छोड़कर पुद्गलादि अन्य द्रव्यों से गुणस्थान का कुछ संबंध नहीं है। जीव द्रव्य के ही मात्र श्रद्धा और चारित्र गुणों से गुणस्थान का साक्षात् संबंध है। इतना ही नहीं, श्रद्धा और चारित्र गुणों से भी सीधा संबंध गुणस्थान का नहीं है। गुणस्थान का संबंध श्रद्धा तथा चारित्र गुण की अवस्थाओं/पर्यायों अर्थात् परिणामों से है।
अबतक गुणस्थान विषयक विचार करते समय हमने संसारी जीव द्रव्य, उसके श्रद्धा और चारित्र गुण तथा उनकी होनेवाली पर्यायों का ही विचार किया। संक्षेप में कहा जाय तो मात्र उपादान कारण का ही चिंतन किया। इनमें निमित्त के संबंध में अभी कुछ भी नहीं बताया है; परन्तु निमित्त के संबंध में विचार करना भी आवश्यक है; क्योंकि कोई भी कार्य निमित्त-उपादान दोनों के योग से होता है। अतः अब निमित्त का विचार करते हैं।
परिभाषा के प्रारंभ में ही मोह और योग के निमित्त से ऐसा जो दो कारणों का उल्लेख किया है, वे दोनों निमित्त कारण ही हैं और गुणस्थान' यह कार्य है। जीवद्रव्य के श्रद्धा तथा चारित्र गुण का जो परिणमन होता है (यह तो उपादान कारण है) उस परिणमन में मोहनीय कर्म का उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम तथा योग (मन-वचन-काय) ये दोनों निमित्त कारण हैं।
आचार्य श्री नेमिचन्द्रस्वामी ने गोम्मटसार जीवकाण्ड की तीसरी गाथा में गुणस्थान की परिभाषा कहते हुए लिखा है - मोहजोगभवा अर्थात् मोह और योग से उत्पन्न होनेवाले को गुणस्थान कहते हैं। यहाँ आचार्यदेव ने मात्र निमित्तभूत कारणों का ही उल्लेख किया है; उपादान कारण को गौण रखा है।
गुणस्थान को ही संक्षेप, ओघ और जीवसमास कहते हैं; जो मोह और योग से उत्पन्न होते हैं। निमित्त-प्रधान कथन पद्धति से हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि वक्ता की विवक्षा अभी निमित्त की मुख्यता से कथन करने की है। उपादान कारण को गौण किया है, अत: अभी निमित्तमलक कथन की अपेक्षा से मोहजोगभवा यह परिभाषा सत्य ही है। मात्र यहाँ अविवक्षित विषय को गौण ही रखा गया है।
गुणस्थान के भेद : गुणस्थान के चौदह भेद निम्नलिखित हैं -
१. मिथ्यात्व, २. सासादनसम्यक्त्व, ३. सम्यग्मिथ्यात्व/मिश्र, ४. अविरतसम्यक्त्व, ५. देशविरत, ६. प्रमत्तविरत, ७. अप्रमत्तविरत, ८. अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसांपराय, ११. उपशांतमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगकेवली, १४. अयोगकेवली।
चौदह गुणस्थानों के नाम क्रमानुसार सिद्धान्त-चक्रवर्ती आचार्यश्री नेमिचंद्र रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड की निम्नांकित ९ व १० क्रमांक की गाथाओं में हैं -
मिच्छो सासण मिस्सो, अविरदसम्मो य देसविरदो य। विरदा पमत्त इदरो, अपुव्व अणियट्टि सुहुमो य॥ उवसंत खीणमोहो सजोगकेवलिजिणो अजोगी य।
चउदस जीव समासा कमेण सिद्धा य णादव्वा ।। गुणस्थान : विभाजन मोह और योग की मुख्यता से गुणस्थानों का विभाजन -
१. पहले गुणस्थान से चौथे गुणस्थान पर्यंत चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म के उदय-अनुदय की मुख्यता से हैं।