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गुणस्थान विवेचन
३१. प्रश्न : श्रेणी के कितने भेद हैं ?
उत्तर : उपशमश्रेणी व क्षपकश्रेणी, इसप्रकार दो भेद हैं। ३२. प्रश्न : श्रेणी चढ़ने से क्या अभिप्राय है ? उत्तर : सातवें गुणस्थान से आगे मुनिराज क्रम से शुद्ध भावों को अर्थात् वीतरागता को बढ़ाते ही जाते हैं; इसी को श्रेणी चढ़ना कहते हैं । • सातवें गुणस्थान से आगे वृद्धिंगत वीतराग परिणामों की दो श्रेणियाँ हैं - १. उपशमश्रेणी व २. क्षपकश्रेणी है। प्रत्येक श्रेणी के चार-चार गुणस्थान होते हैं।
३३. प्रश्न : उपशमश्रेणी किसे कहते हैं ? उसके कौन-कौन से गुणस्थान हैं ?
उत्तर : जिसमें चारित्र मोहनीय की २१ प्रकृतियों के उपशम के साथ वीतरागता बढ़ती जाती है, उसे उपशमश्रेणी कहते हैं। आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ और ग्यारहवाँ ये चार गुणस्थान उपशमश्रेणी के हैं।
३४. प्रश्न : क्षपकश्रेणी किसे कहते हैं ? उसके कौन-कौन से गुणस्थान हैं ?
उत्तर : जिसमें चारित्रमोहनीय की २१ प्रकृतियों के क्षय के साथ वीतरागता बढ़ती जाती है, उसे क्षपकश्रेणी कहते हैं। आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ और बारहवाँ ये चार गुणस्थान क्षपकश्रेणी के हैं ।
३५. प्रश्न : मोहनीय कर्म किसे कहते हैं ? उसके कितने और कौन-कौन से भेद हैं ?
उत्तर : जीव के मोह-राग-द्वेष आदि विकारी परिणामों के होने में जो कर्म निमित्त होता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। उसके दो भेद हैंदर्शनमोहनीय कर्म और चारित्रमोहनीय कर्म |
३६. प्रश्न: दर्शनमोहनीय कर्म के कितने और कौन-कौन से भेद हैं ? उत्तर : बंध की अपेक्षा दर्शनमोहनीय कर्म एक ही प्रकार का है; किन्तु सत्त्व अर्थात् सत्ता और उदय की अपेक्षा से उसके तीन भेद हैं(१) मिथ्यात्व (२) सम्यग्मिथ्यात्व (३) सम्यक्प्रकृति ।
जैसे - चक्की में दले हुये कोदों के चावल, कण और भूसी, इसप्रकार तीन भेद होते हैं; उसीप्रकार प्रथमोपशम सम्यक्त्वरूपी चक्की में दले गये दर्शनमोहनीय कर्म के तीन भेद होते हैं।
महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
३७. प्रश्न : मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर : सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग से विमुख होकर तत्त्वार्थश्रद्धान में निरुत्सुक, हिताहित विचार करने में असमर्थ, मिथ्यात्व अर्थात् विपरीत मान्यतारूप परिणाम में निमित्त होनेवाले कर्म को मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय कर्म कहते हैं।
३८. प्रश्न : सम्यग्मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय कर्म किसे कहते हैं ? उत्तर : प्रक्षालित क्षीणाक्षीण मदशक्तिवाले कोदों के समान मिश्र श्रद्धान में निमित्त होनेवाले कर्म को सम्यग्मिथ्यात्व अर्थात् मिश्र दर्शनमोहनीय कर्म कहते हैं।
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३९. प्रश्न : सम्यक्प्रकृति दर्शनमोहनीय कर्म किसे कहते हैं ? उत्तर : क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में चल, मल, अगाढ़ दोषों के उत्पन्न होने में निमित्त होनेवाले कर्म को सम्यक्प्रकृति दर्शनमोहनीय कर्म कहते हैं। ४०. प्रश्न : चारित्रमोहनीय कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर : सम्यग्दर्शन- ज्ञानपूर्वक राग-द्वेष की निवृत्तिमय आत्मस्थिरतारूप चारित्र की अप्रगटता में निमित्त होनेवाले कर्म को चारित्रमोहनीय कर्म कहते हैं।
४१. प्रश्न: चारित्रमोहनीय कर्म के कितने भेद हैं ? उत्तर : दो भेद हैं- कषाय और नोकषाय ।
कषाय के सोलह भेद हैं- अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ ।
नोकषाय के नौ भेद हैं- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद। (ये ९ नोकषायें अनंतानुबंधी आदि चार भेदरूप भी होती हैं अर्थात् इनका उदय उन क्रोधादि के साथ यथासम्भव होता है। खुलासा के लिए भावदीपिका पृष्ठ ४९ से ७० कषायभाव अंतराधिकार पढ़ें ।)
४२. प्रश्न: कषाय कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर : अमर्याद / विस्तृत संसाररूपी कर्मक्षेत्र को जोतकर आत्मस्वभाव से विपरीत लौकिक सुख और दुःख आदि अनेक प्रकार के धान्य के उत्पादक जीव के विकारी परिणामों को कषाय कहते हैं।
• आत्मा को दुःखी करनेवाले, आकुलित करनेवाले, कसनेवाले