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गुणस्थान विवेचन
१०. पाँचवाँ गुणस्थान चारित्र मोहनीय की १७ प्रकृति के उदय से होता है।
(प्रत्याख्यानावरण-४, संज्वलन-४, और नौ नोकषाय)। ११. छठवाँ गुणस्थान संज्वलन व नौ नोकषायों के तीव्र उदय से होता है। १२. सातवाँ गुणस्थान संज्वलन और नौ नोकषायों के मंद उदय से होता है। १३. आठवाँ गुणस्थान संज्वलन और नौ नोकषायों के मंदतर उदय से होता है। १४. नौवाँ गुणस्थान संज्वलन व नौ नोकषायों के मंदतम उदय से होता है। १५. दसवाँ गुणस्थान संज्वलन सूक्ष्म लोभ के उदय से होता है। १६. ग्यारहवाँ गुणस्थान मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशम से होता है। १७. बारहवाँ गुणस्थान मोहनीय कर्म के पूर्ण क्षय से होता है। १८. तेरहवाँ गुणस्थान घाति कर्मों के पूर्ण क्षय से होता है। १९. चौदहवाँ गुणस्थान योग के अभाव की अपेक्षा होता है। ५. गुणस्थानों में मूलकर्मों का उदय - १. ज्ञानावरण कर्म का उदय पहले से बारहवें गुणस्थान पर्यंत होता है। २. दर्शनावरण कर्म का उदय पहले से बारहवें गुणस्थान पर्यंत होता है। ३. वेदनीय कर्म का उदय पहले से चौदहवें गुणस्थान पर्यंत होता है। ४. मोहनीय कर्म का उदय पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान पर्यंत होता है। ५. आयु कर्म का उदय पहले गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान पर्यंत होता है। ६. नाम कर्म का उदय पहले गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान पर्यंत होता है। ७. गोत्र कर्म का उदय पहले गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान पर्यंत होता है। ८. अंतराय कर्म का उदय पहले से बारहवें गणस्थान पर्यंत होता है। ६. गुणस्थानों में मूलकर्मों का सत्त्व - १. ज्ञानावरण कर्म का पहले से बारहवें गुणस्थान पर्यंत सत्त्व पाया जाता है। २. दर्शनावरण कर्म का पहले से बारहवें गुणस्थान पर्यंत सत्त्व रहता है। ३. वेदनीय कर्म का पहले से चौदहवें गुणस्थान पर्यंत सत्त्व पाया जाता है। ४. मोहनीय कर्म का पहले से ग्यारहवें गुणस्थान पर्यंत सत्त्व पाया जाता है। ५. आयु कर्म का पहले से चौदहवें गुणस्थान पर्यंत सत्त्व पाया जाता है। ६. नामकर्म का पहले से चौदहवें गुणस्थान पर्यंत सत्त्व पाया जाता है। ७. गोत्रकर्म का पहले से चौदहवें गुणस्थान पर्यंत सत्त्व पाया जाता है। ८. अंतराय का पहले से बारहवें गुणस्थान पर्यंत सत्त्व पाया जाता है। *
परिशिष्ट -३
गुणस्थानों में शुद्ध परिणति शुद्ध परिणति की परिभाषा निम्नप्रकार है - १. आत्मा के चारित्रगुण की शुद्ध पर्याय अर्थात् वीतराग परिणाम को शुद्ध
परिणति कहते हैं। २. कषाय के अनुदय से व्यक्त वीतराग अवस्था को शुद्ध परिणति कहते हैं। ३. जबतक साधक आत्मा की वीतरागता पूर्ण नहीं होती, तबतक साधक
आत्मा में शुभोपयोग, अशुभोपयोग और शुद्धोपयोग के साथ कषाय के अनुदयपूर्वक जो शुद्धता अर्थात् वीतरागता सदैव बनी रहती है; उसे शुद्ध परिणति कहते हैं। जैसे१. चौथे और पाँचवें गुणस्थान में जब साधक, बुद्धिपूर्वक शुभोपयोग या अशुभोपयोग में संलग्न रहते है; तब कषाय के अभावरूप इस शुद्ध परिणति के कारण ही वे जीव धार्मिक बने रहते हैं। २. छठवें गुणस्थानवर्ती शुभोपयोगी मनिराज को भी शद्ध परिणति नियम से रहती है। इस शद्ध परिणति के कारण ही यथायोग्य कर्मों का संवर और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा भी निरंतर होती रहती है। शद्ध परिणति अनेक स्थान पर निम्न प्रकार रह सकती है - चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में - मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी एक ही कषाय चौकड़ी के अनुदयरूप अभावपूर्वक व्यक्त वीतरागता से जघन्य शुद्ध परिणति सतत बनी रहती है। इसी कारण युद्धादि
अशुभोपयोग में संलग्न श्रावक को भी यथायोग्य संवर-निर्जरा होते हैं। (२) पाँचवें देशविरत गुणस्थान में - अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण -इन
दो कषाय चौकड़ी के अनुदयरूप अभावपूर्वक व्यक्त विशेष वीतरागता के कारण मध्यम शुद्ध परिणति सतत बनी रहती है। इसलिए दुकान-मकानादि अथवा घर के सदस्यों की व्यवस्थारूप अशुभोपयोग में समय बिताते हुए
व्रती श्रावक को भी यथायोग्य संवर-निर्जरा होते हैं। (३) छठवें-प्रमत्तविरत गुणस्थान में - अनंतानुबंधी आदि तीन कषाय चौकड़ी