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गुणस्थानों में विशेष
गुणस्थान
मिथ्यात्व
गुणस्थानों में बन्धव्युच्छित्ति की सन्दृष्टि व्युच्छिन्न प्रकृतियों
व्युच्छिन्न प्रकृतियों के नाम की संख्या
| मिथ्यात्व, हुंडकसंस्थान, नपुंसकवेद, असंप्राप्तासृपाटिका-संहनन, एकेंद्रियजाति, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिद्रिय, नरकगति, नरक-गत्यानुपूर्वी और नरकायु । | अनंतानुबंधी कषाय ४, स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, न्यग्रोधपरिमंडल-स्वाति-कुब्जक
और वामनसंस्थान, वज्रनाराच-अर्धनाराच-कीलित-संहनन, अप्रशस्त-विहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यंचगतितिर्यंच-गत्यानुपूर्वी, तिर्यंचायु और उद्योत।
सासादन
मिश्र असंयत
देशसंयत प्रमत्त अप्रमत्त
३. गुणस्थानों में मूलकर्मों का बंध - १. ज्ञानावरण कर्म का बंध पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान पर्यंत होता है। २. दर्शनावरण का बंध पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान पर्यंत होता है। ३. वेदनीय कर्म का बंध पहले गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान पर्यंत होता है। ४. दर्शनमोहनीय का बंध मात्र प्रथम गुणस्थान में होता है।
• चारित्रमोहनीय का बंध प्रथम से नौवें गुणस्थानपर्यंत होता है। • दसवें गुणस्थान में सूक्ष्मलोभ कषाय के उदय से सूक्ष्मलोभ परिणाम तो होता है; तथापि चारित्रमोहनीय के किसी भी प्रकृति का बंध नहीं होता। पहले गुणस्थान से सातवाँ स्वस्थान अप्रमत्त गुणस्थान पर्यंत आयुकर्म का बंध होता है। इतना विशेष है कि मिश्र गुणस्थान में किसी भी
आयुकर्म का बंध नहीं होता। ६. नाम कर्म का बंध पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान पर्यंत होता है। ७. गोत्र कर्म का बंध पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान पर्यंत होता है। ८. अंतराय कर्म का बंध पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान पर्यंत होता है। ४. गुणस्थानों में उदय - १. तीर्थंकर प्रकृति का उदय तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में ही होता है। २. आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग का उदय छठवें गुणस्थान में ही
होता है। ३. सम्यग्मिथ्यात्व का उदय तीसरे गुणस्थान में ही होता है। ४. सम्यक्प्रकृति का उदय चौथे से सातवें गुणस्थान पर्यंत ही होता है। ५. चौथे गुणस्थान में चारों आनुपूर्वी का उदय होता है। ६. पहला गुणस्थान एक मिथ्यात्व और चार अनन्तानुबंधी के उदय से होता है। ७. दूसरा गुणस्थान अनन्तानुबंधी के उदय से होता है। ८. तीसरा गुणस्थान सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से होता है। ९. चौथा गुणस्थान सात कर्मों के अर्थात् दर्शनमोहनीय ३, चारित्रमोहनीय ४
प्रकृति के उपशम, क्षय या क्षयोपशम (एकसम्यग्प्रकृति के उदय) से होता है।
अप्रत्याख्यानावरण की चार कषाय, वज़नाराचसंहनन, औदारिकशरीर, औदारिकअंगोपांग, मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्वी | और मनुष्यायु। प्रत्याख्यानावरण की चार कषाय । अस्थिर, अशुभ, असातावेदनीय, अयश:कीर्ति, अरति और शोक । देवायु (यहाँ स्वस्थानअप्रमत्त देवायु की बंधनिष्ठापनाव्युच्छित्ति जानना । सातिशयअप्रमत्त में देवायु की व्युच्छित्ति नहीं होती, क्योंकि सातिशयअप्रमत्त में देवायु का बंध ही नहीं होता है।) निद्रा और प्रचला। इस भाग में उपशमश्रेणि चढ़तेसमय मरण नहीं होता। | तीर्थंकर, निर्माण, प्रशस्तविहायोगति, पंचेंद्रियजाति, तैजस, कार्मण, आहारकशरीर-आहारक अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियकशरीर, वैक्रियक अंगोपांग, वर्णादि ४, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और आदेय। | हास्य, रति, भय और जुगुप्सा।
अपूर्वकरण (प्रथमभाग) षष्ठमभाग
०४
| पुरुषवेद
०१
सप्तमभाग अनिवृत्तिकरण प्रथमभाग द्वितीयभाग तृतीयभाग चतुर्थभाग पंचमभाग सूक्ष्मसांपराय उपशांतमोह क्षीणमोह सयोगी
| संज्वलनक्रोध ___Bgahingd920 HIV TEN संज्वलनमान
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gonzZmMhEX (Cn Pg_nV HSWZ संज्वलनमाया
Z ZmOrdnH% Ani mgohl) संज्वलनलोभ | ज्ञानावरण५, दर्शनावरण ४, अंतराय ५, यशस्कीर्ति और उच्चगोत्र ।
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सातावेदनीय।