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गुणस्थान विवेचन और सर्व विद्याधरों के भूत, भविष्यत, वर्तमान के सर्व सुख को एकत्र कर लेने पर भी त्रिकालज विषयों से उत्पन्न होनेवाले इस इन्द्रियजन्य समस्त सुखों से (विभिन्न जाति का) अनन्तानन्तगुना शाश्वत एवं अतीन्द्रिय सुख सिद्ध परमेष्ठी एक समय में भोगते हैं। लोक के अग्रभाग में स्थित सिद्ध परमेष्ठी अपनी आत्मा के उपादान से उत्पन्न वद्धि-हास से रहित. पर द्रव्यों से निरपेक्ष, सर्व सुखों में सर्वोत्कृष्ट, बाधा रहित, उपमा रहित, दुःख रहित, अतीन्द्रिय, अनुपम सुख से उत्पन्न और समस्त सुखों में जो सारभूत है, ऐसे सुख का उपभोग निरन्तर करते हैं।
सिद्ध भगवान का स्वरूप - तनुवातवलय के अन्त में है मस्तक जिनका ऐसे त्रिजगद्वन्दनीय, अनन्त सुख में निमग्न और नित्य ही अष्ट गुणों से विभूषित सिद्ध परमेष्ठी उस सिद्धशिला से ऊपर अवस्थित हैं । ज्ञान ही है शरीर जिनका ऐसे वे अमूर्तिक सिद्ध कोई कायोत्सर्ग से और कोई पद्मासन से नानाप्रकार के आकारों से अवस्थित हैं। पुरुषाकार मोम रहित सांचे में जिसप्रकार आकाश पुरुषाकार को धारण करके रहता है. उसीप्रकार पूर्व शरीर के आयाम एवं विस्तार में से किंचित् न्यून पुरुषाकार प्रदेशों से युक्त, लोकोत्तमस्वरूप, शरणस्वरूप और समस्त विश्व को मंगलस्वरूप सिद्ध भगवान अन्तरहित अनन्तकाल पर्यन्त अपनी आत्मा में ही रहते हैं । इसप्रकार के सिद्ध भगवान विश्व के समस्त अरहंतों और मुनीश्वरों के द्वारा वन्द्य तथा स्तुत्य हैं, मैं भी उनका ध्यान करता हूँ, वे मुझे अपने गुणों के सदृश अपनी सिद्ध गति के समान अनंत सुखमय सिद्धदशा प्रदान करें।
धवला पुस्तक १ का अंश (पृष्ठ २०१) सामान्य से सिद्ध जीव हैं।।२०।।
सिद्ध, निष्ठित, निष्पन्न, कृतकृत्य और सिद्धसाध्य - ये एकार्थवाची नाम हैं। जिन्होंने समस्त कर्मों का निराकरण कर दिया है, जिन्होंने बाह्य पदार्थों की अपेक्षा रहित, अनन्त, अनुपम, स्वाभाविक और प्रतिपक्षरहित सुख को प्राप्त कर लिया है, जो निर्लेप हैं, अचल स्वरूप को प्राप्त हैं, संपूर्ण अवगुणों से रहित हैं, सर्व गुणों के निधान हैं, जिनका स्वदेह अर्थात् आत्मा का आकार चरम शरीर से कुछ न्यून है, जो कोश से निकले हुए बाण के समान विनि:संग हैं और लोक के अग्रभाग में निवास करते हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं।
पुरुषार्थ की अपूर्वता प्रश्न : सादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रगति करके शीघ्रातिशीघ्र मुक्त हो, तो कितने समय में और किस प्रकार मुक्त होता है? ।
उत्तर : (१) मिथ्यात्वपर्याय से कुछ कम अर्द्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण संसार में परिभ्रमण कर अन्तिम भव के ग्रहण करने पर मनुष्य भव में उत्पन्न हुआ। (२) पुन: अन्तर्मुहूर्त काल संसार के अवशेष रह जाने पर तीनों ही तीनों करणों को करके प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। (३) पुन: वेदक सम्यग्दृष्टि हुआ। (४) पुन: अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा अनंतानुबंधी कषाय का विसंयोजन करके । (५) उसके बाद दर्शनमोहनीय का क्षय करके (६) पुन: अप्रमत्त संयत हुआ। (७) फिर प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान इन दोनों गुणस्थानों संबंधी सहस्रों परिवर्तनों को करके (८) क्षपक श्रेणी पर चढ़ता हुआ अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अधःप्रवृत्तकरण विशुद्धि से शुद्ध होकर (९) अपूर्वकरण क्षपक हुआ। (१०) अनिवृत्तिकरण क्षपक हुआ। (११) सूक्ष्मसांपरायिक क्षपक हुआ। (१२) क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ हुआ। (१३) सयोगकेवली हुआ। (१४) अयोगकेवली होता हुआ सिद्ध हो गया।
इसप्रकार मोक्षमार्ग की साधना में शीघ्रता हो तो १४ अंतर्मुहूर्त में मुक्ति हो जाती है और ये सभी अंतर्मुहूर्त भी एक ही बड़े अंतर्मुहूर्त में आ जाते हैं। इससे स्थूलरूप से यह कह सकते हैं कि सादि मिथ्यादृष्टि भी मिथ्यात्व छोड़कर अर्थात् सम्यग्दृष्टि होकर एक ही अंतर्मुहूर्त में मुक्त हो सकता है। (यह सादि मिथ्यादृष्टि की चर्चा) (देखिए धवला पुस्तक ४, पृष्ठ ३३६) ___ अनादि मिथ्यादृष्टि के सम्बन्ध में पंडितप्रवर श्री टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रंथ में पृष्ठ क्रमांक २६५पर निम्न शब्दों में कहा है - "देखो, परिणामों की विचित्रता ...! कोई नित्य निगोद से निकलकर मनुष्य होकर मिथ्यात्व छूटने के पश्चात् अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त करता है।"