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गुणस्थान विवेचन काल अपेक्षा विचार -
सादि अनंत काल । सिद्ध अवस्था का प्रारम्भ होता है, अतःउनका काल सादि (स + आदि) है और इस अवस्था का कभी नाश होगा ही नहीं, अतः सर्व सिद्ध भगवान नियम से सादि अनंत ही है।
छहढाला शास्त्र के छठवीं ढाल के तेरहवें छन्द में इस विषय को ग्रंथकार ने निम्न शब्दों में कहा है -
रहि हैं अनंतानंत काल, यथा तथा शिव परिणये। इस तरह सिद्धों का काल सादि अनंत होने से काल के जघन्य और उत्कृष्टपने से संबंध ही नहीं है। गमनागमन अपेक्षा विचार -
गमन - सिद्ध अवस्था से कहीं ऊपर अन्य उत्कृष्ट अवस्था है नहीं: अतः सिद्ध जीव का अन्यत्र गमन होता नहीं है। इसलिए वे गमन रहित अवस्थित/स्थिर ही रहते हैं।
आगमन - अयोगकेवली गुणस्थान से इस सिद्धावस्था में आगमन हुआ है, अन्य गुणस्थानों से यहाँ आगमन भी संभव नहीं है। विशेष अपेक्षा विचार -
१. यद्यपि अनंतानंत सिद्ध भगवानों के ज्ञानादि अनंतानंत गुणों की पर्यायों में किंचिदपि अंतर नहीं है; तथापि व्यंजनपर्याय अर्थात् आकार में अन्तर होता है। जीव स्वयं स्वभाव से अमूर्तिक तो है ही। अब सिद्ध दशा में शरीर का अभाव होने से सर्वथा तथा सदा के लिए निराकार एवं अमूर्तिक हो गये हैं।
प्रदेशत्व सामान्यगुण की अपेक्षा से कोई न कोई आकार होना बात अलग है और शरीर के अभाव से निराकार होना अलग है। यह निराकारपना प्रदेशत्व गुण का ही कार्य है; तथापि उसे शरीर के अभाव
की मुख्यता करके कहा है। इन दोनों के कथन में विरोध नहीं है। इस निराकारपने के कारण ही जिस आकाश के क्षेत्र में एक सिद्ध भगवान विराजमान हैं, उस ही आकाश के क्षेत्र में अन्य अनंत सिद्ध भगवान भी अपनी स्वतंत्र सत्ता से विराजते हैं। यह कार्य अवगाहनत्व प्रतिजीवी गुण का कार्य है।
२. भूतप्रज्ञापन नैगमनय से क्षेत्र, काल आदि द्वारा भी इन सिद्धों में
गुणस्थानातीत : सिद्ध भगवान भेद किया जाता है। यथा - विदेहक्षेत्र से मुक्त, भरत क्षेत्र से मुक्त, उत्सर्पिणी काल के चतुर्थ काल से मुक्त आदि।
३. सिद्ध दशा का उत्पाद मनुष्य क्षेत्र निवास के अंतिम समय में और मध्य लोक में ही होता है। इस दृष्टि से विचार किया जाय तो सिद्धालय तो मनुष्यलोक ही है; तथापि सिद्धदशा उत्पन्न होते ही परमपवित्र सिद्ध जीव का ऋजुगति से आठवीं ईषत्प्राग्भार पृथ्वी पर्यंत गमन होता है और वहीं अनंत काल पर्यंत आठ गुणों से अलंकृत रहते हैं। सिद्ध पूजा में कहा भी है -
समकित दर्शन ज्ञान, अगुरुलघु अवगाहना।
सूक्ष्म वीरजवान, निराबाध गुण सिद्ध के।। दोहा में आठ गुण अर्थात् पर्यायों का कथन किया है, जो आठों कर्मों के अभाव से व्यक्त हो गये हैं, वे निम्नप्रकार हैं - (देखिए तत्त्वार्थसार अध्याय ८, श्लोक ३७ से ४०) (१) ज्ञानावरण कर्म के अभाव से अनंत ज्ञान, (२) दर्शनावरण कर्म के अभाव से अनंत दर्शन, (३) दर्शनमोहनीय कर्म के अभाव से क्षायिक सम्यक्त्व ।
चारित्रमोहनीय कर्म के अभाव से क्षायिक चारित्र । (४) अंतराय कर्म के अभाव से अनंत वीर्य, (५) वेदनीय कर्म के अभाव से अव्याबाधत्व, (६) आयु कर्म के अभाव से अवगाहनत्व, (७) नाम कर्म के अभाव से सूक्ष्मत्व और (८) गोत्र कर्म के अभाव से अगुरुलघुत्व ।
सिद्धों का स्थान - ईषत्-प्राग्भार पृथ्वी के ठीक मध्य में रजतमय, दिव्य, सुन्दर, दैदीप्यमान और सीधे रखे हुए अर्ध गोले के सदृश मोक्ष शिला है। यह अत्यन्त प्रभायुक्त उत्तान छत्राकार और मनुष्य लोक के सदृश (४५ लाख योजन) विस्तारवाली है। इस शिला की मध्य की मोटाई आठ योजन है, आगे अन्त पर्यंत क्रमशः हीन होती गई है।
सिद्धों का मोक्ष-शिला, यह स्थान व्यवहारनय से कहा गया है। निश्चय से प्रत्येक सिद्ध भगवान अपने-अपने आत्मप्रदेशों में अवस्थित हैं।
सिद्धों का सुख - तीनों लोकों में चतुर्निकाय के सर्व देवों, इन्द्रों, अहमिन्द्रों, पदवीधारी चक्रवर्ती आदि सर्व राजाओं, भोगभूमिज युगलों