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________________ गुणस्थान विवेचन इस काल में आयु, बुद्धि आदि अल्प हैं, इसलिए प्रयोजनमात्र अभ्यास करना; शास्त्रों का तो पार है नहीं और सुन ! कुछ जीव व्याकरणादि के ज्ञान बिना भी तत्त्वोपदेशरूप भाषा शास्त्रों के द्वारा व उपदेश सुनकर तथा सीखने से भी तत्त्वज्ञानी होते देखे जाते हैं। कई जीव केवल व्याकरणादिक के ही अभ्यास में जन्म गंवाते हैं और तत्त्वज्ञानी नहीं होते हैं - ऐसा भी देखा जाता है। और सुनो ! व्याकरणादिक का अभ्यास करने से पुण्य उत्पन्न नहीं होता; किन्तु धर्मार्थी होकर उनका अभ्यास करे तो किंचित् पुण्य होता है। तत्त्वोपदेशक शास्त्रों के अभ्यास से सातिशय महान पुण्य उत्पन्न होता है, इसलिए भला तो यह है कि ऐसे तत्त्वोपदेशक शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिए। इसप्रकार शब्द-शास्त्रादिक के पक्षपाती को इस शास्त्र के सन्मुख किया। २२. प्रश्न : अर्थ/धन का पक्षपाती कहता है कि इस शास्त्र का अभ्यास करने से क्या होता है ? सर्वकार्य धन से बनते हैं। धन से ही प्रभावना आदि धर्म होता है; धनवान के निकट अनेक पण्डित आकर रहते हैं। अन्य भी सर्व कार्यों की सिद्धि होती है। अत: धन पैदा करने का उद्यम करना । उत्तर : रे पापी ! धन कुछ अपना उत्पन्न किया तो होता नहीं, भाग्य से होता है। इस ग्रन्थाभ्यास आदि धर्मसाधन से जो पुण्य की उत्पत्ति होती है, उसी का नाम भाग्य है । यदि धन होना है तो शास्त्राभ्यास करने से कैसे नहीं होगा ? यदि नहीं होना है तो शास्त्राभ्यास नहीं करने से कैसे होगा ? धन का होना न होना तो उदयाधीन है, शास्त्राभ्यास में क्यों शिथिल होता है ? और सुनो ! धन है वह तो विनाशीक है, भय-संयुक्त है, पाप से उत्पन्न होता है व नरकादि का कारण है। जो यह शास्त्राभ्यासरूप ज्ञानधन है, वह अविनाशी है, भयरहित है, धर्मरूप है, स्वर्ग-मोक्ष का कारण है। अत: महंत पुरुष तो धनादिक को छोड़कर शास्त्राभ्यास में ही लगते हैं और तू पापी शास्त्राभ्यास को छोड़कर धन पैदा करने की बढ़ाई करता है, तू तो अनंत संसारी है। सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका तूने कहा कि प्रभावनादिक धर्म भी धन से होते हैं; किन्तु वह प्रभावनादि धर्म तो किंचित् सावध क्रिया संयुक्त है; इसलिए समस्त सावध पाप रहित शास्त्राभ्यासरूप धर्म है, वह प्रधान है। यदि ऐसा न हो तो गृहस्थ अवस्था में प्रभावनादि धर्म साधते थे, उनको छोड़कर संयमी होकर शास्त्राभ्यास में किसलिए लगते हैं ? शास्त्राभ्यास करने से प्रभावनादि भी विशेष होती है। तूने कहा कि धनवान के निकट पंडित भी आकर रहते हैं। सो लोभी पंडित हो और अविवेकी धनवान हो, वहाँ तो ऐसा ही होता है। शास्त्राभ्यासवालों की तो इन्द्रादिक भी सेवा करते हैं। यहाँ भी बड़े-बड़े महंत पुरुष दास होते देखे जाते हैं; इसलिए शास्त्राभ्यासवालों से धनवानों को महंत न जानो। तूने कहा कि धन से सर्व कार्यों की सिद्धि होती है (किन्तु ऐसा नहीं है।) उस धन से तो इस लोक संबंधी कुछ विषयादिक कार्य इसप्रकार से सिद्ध होते हैं, जिससे बहुत काल तक नरकादिक के दुःख सहने पड़ते हैं और शास्त्राभ्यास से ऐसे कार्य सिद्ध होते हैं कि जिससे इस लोक-परलोक में अनेक सुखों की परम्परा प्राप्त होती है। इसलिए धन पैदा करने के विकल्प को छोड़कर शास्त्राभ्यास करना और ऐसा सर्वथा न बने तो संतोष पूर्वक धन पैदा करने का साधन करके शास्त्राभ्यास में तत्पर रहना । इसप्रकार धन पैदा करने के पक्षपाती को शास्त्राभ्यास सन्मुख किया। २३. प्रश्न : काम-भोगादिक का पक्षपाती कहता है कि शास्त्राभ्यास करने में सुख नहीं है, बड़प्पन नहीं है; इसलिए जिनके द्वारा यहाँ ही सुख हो, ऐसे जो स्त्रीसेवन, खाना, पहिनना इत्यादिक विषय, उनका सेवन किया जाय अथवा जिसके द्वारा यहाँ ही बड़प्पन हो, ऐसे विवाहादिक कार्य किये जायें। ___उत्तर : विषयजनित जो सुख है, वह दुःख ही है; क्योंकि विषय-सुख तो पर-निमित्त से होता है। पहले, पीछे और तत्काल ही आकुलता
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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