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________________ सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका गुणस्थान विवेचन उसीप्रकार अध्यात्मशास्त्रों का ज्ञान भी उसको होता है; किन्तु मिथ्यात्व के उदय से (मिथ्यात्व वश) अयथार्थ साधन करता है, तो शास्त्र क्या करें? शास्त्रों में तो परस्पर विरोध है नहीं, कैसे ? उसे कहते हैं - करणानुयोग के शास्त्रों में तथा अध्यात्मशास्त्रों में भी रागादिक भाव, आत्मा के कर्म निमित्त से उत्पन्न कहे हैं; द्रव्यलिंगी उनका स्वयं कर्ता होकर प्रवर्तता है और शरीराश्रित सर्व शुभाशुभ क्रिया पुद्गलमयी कही है; किन्तु द्रव्यलिंगी उसे अपनी जानकर उसमें ग्रहण-त्याग की बुद्धि करता है। सर्व ही शुभाशुभ भाव, आस्रव-बंध के कारण कहे हैं; किन्तु द्रव्यलिंगी शुभभावों को संवर, निर्जरा और मोक्ष का कारण मानता है। शुद्धभाव को संवर-निर्जरा और मोक्ष का कारण कहा है; किन्तु द्रव्यलिंगी उसे पहिचानता ही नहीं और (प्रगट) शुद्धात्मस्वरूप को मोक्ष कहा है, उसका द्रव्यलिंगी को यथार्थ ज्ञान ही नहीं है। इसप्रकार अन्यथा साधन करे, तो उसमें शास्त्रों का क्या दोष है ? तूने कहा कि तिर्यंचादिक को सामान्य श्रद्धान से कार्यसिद्धि हो जाती है। तिर्यंचादिक को भी अपने क्षयोपशम के अनुसार विशेष जानना होता ही है। अथवा पूर्व पर्यायों में (पूर्वभव में) विशेष का अभ्यास किया था, उसी संस्कार के बल से (विशेष का जानना) सिद्ध होता है। जिसप्रकार किसी ने कहीं पर गड़ा हुआ धन पाया, तो हम भी उसी प्रकार पावेंगे; ऐसा मानकर सभी को व्यापारादिक का त्याग करना योग्य नहीं। उसीप्रकार किसी को अल्प श्रद्धान द्वारा ही कार्यसिद्धि हुई है, तो हम भी इसप्रकार ही कार्य की सिद्धी करेंगे, ऐसा मानकर सब ही को विशेष अभ्यास का त्याग करना उचित नहीं; क्योंकि यह राजमार्ग नहीं है। राजमार्ग तो यही है - नानाप्रकार के विशेष (भेद) जानकर तत्त्वों का निर्णय होते ही कार्यसिद्धि होती है। तूने जो कहा कि मेरी बुद्धि से विकल्प साधन नहीं होता; तो जितना हो सके, उतना ही अभ्यास कर । तू पाप कार्य में तो प्रवीण है और इस अभ्यास में कहता है 'मेरी बुद्धि नहीं है', सो यह तो पापी का लक्षण है। इसप्रकार द्रव्यानुयोग के पक्षपाती को इस शास्त्र के अभ्यास में सन्मुख किया। अब अन्य विपरीत विचारवालों को समझाते हैं - २०. प्रश्न : शब्दशास्त्रादिक का पक्षपाती कहता है कि व्याकरण, न्याय, कोश, छंद, अलंकार, काव्यादिक ग्रन्थों का अभ्यास किया जाय तो अनेक ग्रन्थों का स्वयमेव ज्ञान होता है व पण्डितपना भी प्रगट होता है। इस शास्त्र के अभ्यास से तो एक इसी का ज्ञान होता है व पण्डितपना विशेष प्रगट नहीं होता; अत: शब्द-शास्त्रादिक का अभ्यास करना। उत्तर : यदि तुम, लोक में ही पण्डित कहलाना चाहते हो, तो तुम उन ही का अभ्यास किया करो और यदि अपना (हितरूप) कार्य करने की चाह है, तो ऐसे जैन ग्रन्थों का ही अभ्यास करने योग्य है । तथा जैनी तो जीवादिक तत्त्वों के निरूपण करनेवाले जो जैन ग्रन्थ हैं, उन्हीं का अभ्यास होने पर पण्डित मानेंगे। २१. प्रश्न : वह कहता है कि मैं जैन ग्रन्थों के विशेष ज्ञान होने के लिये व्याकरणादिक का अभ्यास करता हूँ। उत्तर : ऐसा है, तो भला ही है; किन्तु इतना है कि जिसप्रकार चतुर किसान अपनी शक्ति अनुसार हलादिक द्वारा खेत को अल्प-बहुत सम्हालकर समय पर बीज बोवे, तो उसे फल की प्राप्ति होती है। ___ उसीप्रकार तुम भी यदि अपनी शक्ति अनुसार व्याकरणादिक के अभ्यास से बुद्धि को अल्प बहुत सम्हालकर जितने काल तक मनुष्य पर्याय तथा इन्द्रियों की प्रबलता इत्यादिक हैं, उतने समय में तत्त्वज्ञान के कारण जो शास्त्र हैं, उनका अभ्यास करोगे, तो तुम्हें सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति हो जायेगी। जिसप्रकार अज्ञानी किसान हलादिक से खेत को संवारता-संवारता ही समय खोवे और समय पर बीज न बोवे तो उसको फल-प्राप्ति होनेवाली नहीं, वृथा ही खेदखिन्न होगा। उसीप्रकार तू भी यदि व्याकरणादिक द्वारा बुद्धि को संवारता-संवारता ही समय खोयेगा, तो सम्यक्त्वादिक की प्राप्ति होनेवाली नहीं, वृथा ही खेदखिन्न होगा।
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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