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काल अपेक्षा विचार -
जघन्यकाल - किसी मुनिराज ने दसवें गुणस्थान से अपनी उत्तरोत्तर बढ़ाते-बढ़ाते ग्यारहवें उपशांतमोह गुणस्थान में प्रवेश किया और मात्र एक समय उपशांतमोह गुणस्थान में उपशम यथाख्यात चारित्र के साथ पूर्ण वीतरागी तथा पूर्ण सुखी जीवन व्यतीत करते हुए यदि मनुष्य आयु का क्षय होता है तो मरण की अपेक्षा उपशांतमोह गुणस्थान का जघन्यकाल मात्र एक समय घटित हो जाता है। इस तरह एक ही प्रकार से जघन्यकाल घटित होता है।
गुणस्थान विवेचन
उत्कृष्ट काल - कोई भी महामुनिराज यदि ग्यारहवें गुणस्थान में मरण के बिना पूर्णकाल पर्यंत रहते हैं तो यथायोग्य एक अंतर्मुहूर्त पर्यंत ही रहते हैं। सभी उपशांतमोही मुनिराजों का ग्यारहवें गुणस्थान का उत्कृष्ट काल समान ही रहता है।
मध्यमकाल - जैसे ग्यारहवें गुणस्थान का जघन्यकाल मरण की अपेक्षा से एक समय जान लिया, वैसे ही मरण की अपेक्षा से ही दो, तीन, चार, पाँच आदि समयों से लेकर यथायोग्य एक अंतर्मुहूर्त में से एक समय कम काल पर्यंत जितने भी भेद होते हैं, वे सर्व प्रकार ग्यारहवें गुणस्थान का मध्यमकाल समझ लेना चाहिए। गमनागमन अपेक्षा विचार -
गमन – १. ग्यारहवाँ उपशांतमोह गुणस्थान, उपशमश्रेणी का अंतिम गुणस्थान है । अतः इस ग्यारहवें गुणस्थान से आगे क्षीणमोह आदि गुणस्थानों में उपशांतमोही मुनिराज का गमन नहीं होता है। उपशमक मुनिराज की उपशांतमोह गुणस्थान पर्यंत ही विकसित होने की पर्यायगत योग्यता रहती है।
जैसे खिलाड़ी गेंद को ऊपर से ठप्पा लगाकर आकाश में उछालता है। गेंद को ऊपर से जब ठप्पा लगाता है तब ही गेंद कितनी ऊपर आकाश में उछलेगी यह उसकी सामर्थ्य निश्चित होती है ।
उपशान्तमोह गुणस्थान
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वैसे ही भावलिंगी संतों का आंतरिक बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ यही रहता है कि धारावाहीरूप से शुद्धि की उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए पूर्णता को प्राप्त करें; परंतु अबुद्धिपूर्वक श्रेणी आरोहण के समय अपूर्वकरण गुणस्थान के पहले समय के पुरुषार्थ के अनुसार ही यह स्वभाव से ही निश्चित हो जाता है कि ये मुनिराज ऊपर के कौन से गुणस्थान तक जायेंगे। निर्णय करानेवाला कोई कर्म अथवा अन्य कोई भी नहीं है।
२. उपशांतमोह गुणस्थानवर्ती मुनिराज यथायोग्य एक अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत उपशांतमोह गुणस्थान में पूर्ण वीतरागी तथा पूर्ण सुखी रहते हैं। तदनंतर नीचे के उपशमक सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में गमन करते हैं।
यहाँ एक सुनिश्चित नियम समझना चाहिए कि कोई भी उपशामक उपशांतमोह गुणस्थान से नीचे उतरते हैं तो वे क्रम-क्रम से छठवें गुणस्थान पर्यंत नीचे तो नियम से एक के बाद एक गुणस्थान में गमन करते हैं। ग्यारहवें से सीधे छठवें में या चौथे में अथवा मिथ्यात्व गुणस्थान में गमन कभी और कोई भी नहीं करते।
पण्डित भागचंद्रजी के भजन का सही भाव न समझने के कारण कुछ लोग भ्रमबुद्धि रखते हैं, वह गलत है। भजन में आया है कि -
मुनि एकादश गुणस्थान चढ़ि, गिरत तहाँ तैं चितभ्रम ठानी। भ्रमत अर्धपुद्गल परिवर्तन, किंचित ऊन काल परमानी ।। जीव के परिणामनि की यह, अति विचित्रता देखहु ज्ञानी । “ गिरत तहाँ तैं चितभ्रम ठानी" से जीव उपशांतमोह गुणस्थान से सीधे मिथ्यात्व गुणस्थान में गमन करते हैं, ऐसा समझना सत्य नहीं है; क्योंकि पद्य में तो उन्होंने सामान्य कथन किया है। ऊपर जिस क्रम से नीचे उतरने की विधि कही है, वैसा ही समझना चाहिए।
वास्तव में देखा जाय तो श्रेणी चढ़ते समय मुनिराज की जिस क्रम से कर्मों की उपशमना हुई है, ग्यारहवें से वापिस नीचे लौटते समय विलोम से उन्हीं उपशमित चारित्र मोहनीय की २१ प्रकृतियों की उदीरणा होती है। अतः छठवें गुणस्थान पर्यंत तो क्रम से ही उतर कर आते हैं। तदनंतर किसी भी गुणस्थान में गमन कर सकते हैं।
३. उपशम श्रेणी चढ़ते (आठवें गुणस्थान का प्रथम भाग छोड़कर) या