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गुणस्थान विवेचन उपशांतकषाय वीतराग छद्मस्थ संबंधी स्पष्टीकरण -
उपशांतकषाय = दबी हुई कषाय । वीतराग = वर्तमान काल में सर्व प्रकार के रागादि से रहित । छद्म = ज्ञानावरण-दर्शनावरण के सद्भाव में विद्यमान अल्पज्ञान-दर्शन, स्थ = स्थित रहनेवाले । अर्थात् ज्ञानावरणदर्शनावरण के सद्भाव में स्थित रहनेवाले।
सर्वप्रकार की कषाय उपशांत हो जाने से वर्तमान में सर्व रागादि के अभावरूप वीतरागता प्रगट होने पर भी ज्ञानावरणादिक का क्षयोपशम होने से छद्मस्थ, अल्पज्ञ ही है। सम्यक्त्व अपेक्षा विचार -
उपशांत मोही मुनिराज द्वितीयोपशम सम्यक्त्व अथवा क्षायिक सम्यक्त्व-इन दोनों सम्यक्त्वों में से किसी भी एक सम्यक्त्व के धारक हो सकते हैं। किसी भी सम्यक्त्व के कारण इस उपशांतमोह गुणस्थान के सामान्य स्वरूप में अथवा सुखादि में कुछ अन्तर नहीं पड़ता है। चारित्र अपेक्षा विचार -
यहाँ औपशमिक यथाख्यातचारित्र है।
अब इस ग्यारहवें उपशांतमोह गुणस्थान के प्रथम समय में ही शेष सूक्ष्म लोभकषाय का उदय तथा सूक्ष्मलोभ परिणाम - दोनों उपशमित हो गये हैं।
९९. प्रश्न : अनंतानुबंधी चारों कषायों का क्या हआ है ? बताइए।
उत्तर : यदि उपशांतमोही मुनिराज क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं तो उनके अनंतानुबंधी कषायों का अभाव क्षायिक सम्यक्त्व होने के पहले ही विसंयोजन द्वारा हो गया है।
यदि उपशांतमोही मुनीश्वर द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के धारक हैं तो उपशम श्रेणी पर आरूढ़ होने के पूर्व सातिशय अप्रमत्त अवस्था में ही उनका क्षायोपशमिक सम्यक्त्व द्वितीयोपशम सम्यक्त्वरूप से परिणमित हो जाता है। उस समय अनंतानुबंधी चतुष्क की विसंयोजना या सदवस्थारूप उपशम हो जाता है। इसलिए इनके अनंतानुबंधी की सत्ता भजनीय है अर्थात् सत्ता हो भी या न भी हो।
उपशान्तमोह गुणस्थान
१००. प्रश्न : विसंयोजना किसे कहते हैं ?
उत्तर : अनंतानुबंधी चारों कषायों के अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कषाय और हास्यादि नौ नोकषायरूप से परिणमित होने को विसंयोजना कहते हैं। यह विसंयोजना का कार्य चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान पर्यंत कहीं पर भी हो सकता है। ___उपशांतमोह गुणस्थान के प्रथम समय से ही औपशमिक चारित्र जिसका दूसरा नाम औपशमिक यथाख्यातचारित्र है, वह प्रगट हो जाता है। इस गुणस्थान के प्रथम समय से लेकर अंतिम समय पर्यंत एक ही प्रकार की वीतरागता, निर्मलता, शुद्धि रहती है। अतः चारित्र एक ही प्रकार का औपशमिक यथाख्यातचारित्र रहता है। ___मोह परिणाम का अभाव इतनी विवक्षा लेकर सोचा जाय तो बारहवें, तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानों में जो क्षायिक यथाख्यातचारित्र है उसमें और ग्यारहवें गुणस्थान के औपशमिक यथाख्यातचारित्र में तिलतुष मात्र भी अंतर नहीं है। मोहकर्म की सत्ता का सद्भाव और क्षयरूप अभाव की अपेक्षा से जो अंतर है, वह विषय यहाँ गौण है।
११वें गुणस्थान के काल संबंधी जघन्य, उत्कृष्ट एवं मध्यम ऐसे तीन भेद होते हैं और १२वें गुणस्थान के कालसंबंधी कोई भेद नहीं है।
तथापि इस ग्यारहवें गुणस्थान से महामुनिराज क्रमशः नीचे कालक्षय या आयुक्षय की अपेक्षा उतरते ही हैं। इस विषय में मोक्षमार्गप्रकाशक के पृष्ठ २६५ का अंतिम परिच्छेद दृष्टव्य है - _ “देखो, परिणामों की विचित्रता ! कोई जीव तो ग्यारहवें गुणस्थान में यथाख्यातचारित्र प्राप्त करके पुनः मिथ्यादृष्टि होकर किंचित् न्यून अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल पर्यंत संसार में रुलता है और कोई नित्य निगोद से निकलकर, मनुष्य होकर मिथ्यात्व छूटने के पश्चात् अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त करता है। ऐसा जानकर अपने परिणाम बिगड़ने का भय रखना और उनके सुधारने का उपाय करना।"