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जिनागम के आलोक में
ध्यान का स्वरूप किसी व्यक्ति या वस्तु के वियोग में दुखी होना या फिर किसी वस्त, व्यक्ति या स्थिति के संयोग में संकल्प-विकल्प करना, दुखी होना, शारीरिक वेदना से व्याकुल होना और भविष्य में अनुकूल संयोगों की वांछा करना ऐसे पाप हैं, ध्यान हैं; जो हमें निगोद में भी पहुँचा सकते हैं। ___ इसीप्रकार जब हम किसी के विनाश या विपत्ति को देखकर आनन्दित होते हैं, झूठ बोलकर आनन्दित होते हैं, इन्कमटेक्स-सेल्सटेक्स आदि की चोरी करके आनन्दित होते हैं, परिग्रह को जोड़कर आनन्दित होते हैं; तब भी क्या हम यह सोच पाते हैं कि हमारी यह वृत्ति-प्रवृत्ति रौद्रध्यान है; जो नरकगति का कारण है।
भले ही हमने किसी को न मारा हो, मारनेवाला आंतकवादी भी क्यों न हो, पर उसकी मौत के समाचार सुनकर आनन्दित होना हिंसानन्दी रौद्रध्यान है। इसीप्रकार हमने झूठ न बोला हो, चोरी नहीं की हो, पैसा भी न्यायपूर्वक ही क्यों न कमाया हो; तब भी यदि हम उक्त कार्यों को देखकर, जानकर, उक्त संयोगों को पाकर आनन्दित होते हैं तो हमारे वे आनन्दरूप परिणाम क्रमश: मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान हैं; जो हमें सीधे नरक में ले जा सकते हैं। ___ हम घर के एकान्त में बैठे-बैठे टी.वी. देख रहे हैं। उसमें खलनायक की पिटाई देखकर खिल-खिलाकर हंस पड़ते हैं; किसी झूठ पर हंस पड़ते हैं, चोरी देखकर या शेयरों के भाव चढते देखकर प्रमुदित हो उठते हैं; तब क्या आपको ऐसा लगता है कि हम कोई पाप कर रहे हैं ?
आप तो यही सोचते हैं कि हम एकदम शान्त बैठे हैं, किसी का भला-बुरा कुछ भी नहीं कर रहे हैं; किन्तु आपको पता होना चाहिये कि आप रौद्रध्यान कर रहे हैं; जो आपको नरक में ले जा सकता है।
कुछ लोग कहते हैं कि हमारा दिल तो बहुत कमजोर है, जब कोई भावुक दृश्य आता है तो हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं। हिंसादि के दृश्य तो हमसे देखे भी नहीं जाते। वे ऐसा मानते हैं कि हम तो बहुत
धर्मात्मा हैं, पर भाईसाहब ! आपका यह रोना-धोना आर्तध्यान है, जो आपको न केवल पशुगति में ले जा सकता है, निगोद का कारण भी बन सकता है।
यद्यपि जिनागम का अध्ययन-अध्यापन स्वाध्याय नामक तप है; आज्ञाविचय, अपायविचय विपाकविचय और संस्थानविचय नामक धर्मध्यान है; तथापि हम जब पुराण पढ रहे होते हैं, प्रथमानुयोग का स्वाध्याय कर रहे होते हैं, तब जिन्हें हम इष्ट समझते हैं, उन्हें होनेवाली प्रतिकूलताओं में दुखी होना भी आर्तध्यान ही तो है। ____ इसीप्रकार जो हमें ठीक नहीं लगते, उनके वध-बंधन में प्रमुदित होना भी तो हिंसानदी रौद्रध्यान ही है। रावण या दुर्योधन के वध में आनन्दित होना भी तो रौद्रध्यान का ही एक रूप है।
जो प्रथमानुयोग के शास्त्र वैराग्य के निमित्त हैं; हम अपने अज्ञान से उन्हें पढकर भी आर्त-रौद्रध्यानरूप परिणमित होते हैं।
आप कह सकते हैं कि इसप्रकार तो देव-शास्त्र-गुरु के वियोग में दुखी होना भी आर्तध्यान में आयेगा? __यह तो आप जानते ही हैं कि ये इष्टवियोगज और अनिष्टसंयोगज जैसे आर्तध्यान छटवें गुणस्थान तक नग्न दिगम्बर भावलिंगी मुनिराजों को भी होते हैं। उनके तो तीर्थंकरों के वियोग, अपने गुरुओं के वियोग, शिष्यों के वियोग में होनेवाले दुःखी परिणाम ही आर्तध्यानरूप होंगे; क्योंकि अन्य कोई तो उन्हें इष्ट होता ही नहीं है।
प्रश्न - क्या उनका यह आर्तध्यान भी तिर्यंचगति का कारण होगा ?
उत्तर - नहीं, कदापि नहीं। यह तो हम पहले लिख चुके हैं कि अज्ञानियों के आर्त-रौद्रध्यान क्रमश: तिर्यंच व नरकगति के कारण हैं; ज्ञानियों के नहीं। यह तो जिनागम में स्पष्ट ही है कि सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव नरक व तिर्यंच गति में नहीं जाते।
रत्नकरण्डश्रावकाचार में स्वामी समन्तभद्राचार्य लिखते हैं -