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________________ ध्यान का स्वरूप ३. वेदना अर्थात् रोगजनित पीड़ा होने पर, उसे दूर करने के लिए होनेवाला संक्लेश परिणामरूप प्रबल चिन्तवन वेदनाजन्य आर्तध्यान है। ४. भविष्यकाल संबंधी विषयों की प्राप्ति की कामना में चित्त का तल्लीन होना निदानज आर्तध्यान है। उक्त आर्तध्यान अपनी-अपनी भूमिकानुसार पहले गुणस्थान से छठवें गुणस्थान तक होते हैं। ध्यान रहे छटवें गुणस्थान में निदान नामक आर्तध्यान नहीं होता, शेष तीन आर्तध्यान होते हैं।' २. निर्दयता/क्रूरता में होनेवाले आनन्दरूप परिणामों का नाम रौद्रध्यान है। हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानंदी और परिग्रहानंदी के भेद से यह रौद्रध्यान भी चार प्रकार का होता है। १. हिंसक कार्यों और भावों में आनन्दित होना, उसीप्रकार के भावों में तल्लीन रहना हिंसानंदी रौद्रध्यान है। २. असत्य बोलने और बोलने के भावों में आनन्दित होकर तल्लीन रहना मृषानन्दी रौद्रध्यान है। ३. चोरी करने और चोरी संबंधी भावों में आनन्दित होकर तल्लीन रहना चौर्यानन्दी रौद्रध्यान है। ४.परिग्रह जोड़ना, जोड़ने व रक्षा करने के भावों में आनन्दित होकर तल्लीन रहना परिग्रहानंदी रौद्रध्यान है। यह रौद्रध्यान अपनी-अपनी भूमिकानुसार पहले गुणस्थान से पाँचवें गुणस्थान तक होता है। इसप्रकार यह सुनिश्चित है कि अज्ञानी और ज्ञानी - दोनों प्रकार के गृहस्थों-श्रावकों को ये दोनों ध्यान होते हैं और अपनी-अपनी भूमिकानुसार लगभग निरन्तर होते रहते हैं। जिनागम के आलोक में उक्त दोनों ध्यानों में आर्तध्यान दुखरूप है, दुखी होनेरूप है और रौद्रध्यान आनन्दरूप है, हिंसादि पापों और रागादि भावों में आनन्दरूप परिणमित होनेरूप है। कर्मोदय से प्राप्त होनेवाले इष्टानिष्ट संयोग भी परिग्रहनामक पाप ही हैं। अनुकूल संयोगों में आनंदित होना भी परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान है। उक्त दोनों ध्यानों में अज्ञानियों के आर्तध्यान को तिर्यंचगति का और रौद्रध्यान को नरकगति का कारण माना गया है। ___सोचने की बात यह है कि जब हम ध्यान के संबंध में बात करते हैं या सोचते हैं या उसकी आवश्यकता बताते हैं, ध्यान करने की प्रेरणा देते हैं, उपयोगिता समझाते हैं, आजकल होनेवाले तत्संबंधी क्रियाकलापों में जुड़ने की बात करते हैं, ध्यान का अभ्यास करने की बात करते हैं; तब क्या हमारे ध्यान में यह बात स्पष्ट होती है कि ये आर्तध्यान और रौद्रध्यान भी ध्यान हैं तथा ये ध्यान तिर्यंच और नरकगति के बंध के कारण हैं। इसीप्रकार जब हम ऐसे संयोगों में घिरे होते हैं। जिन्हें हम नहीं चाहते हैं, जो हमें अनिष्ट लगते हैं, उन्हें दूर करने के या उनसे बचने के बारे में सोच रहे होते हैं; भले ही हम उन्हें न मारें, पर मर जावें तो अच्छा है - ऐसा सोच रहे होते हैं, किसी बीमारी से कष्ट में होते हैं और उसके बारे में ही सोचते रहते हैं या फिर मैंने यह अच्छा कार्य किया है, इसके फल में मुझे धनादि की प्राप्ति हो, पुत्रादि की प्राप्ति हो, स्वर्ग की प्राप्ति हो - ऐसा सोच रहे होते हैं, तब क्या हम यह जानते हैं कि ऐसा करके हम ऐसा महापाप कर रहे हैं। जिसके फल में हमें तिर्यंचगति में जाना होगा; क्योंकि ये सब आर्तध्यान के ही रूप हैं। क्या आप यह भी जानते हैं कि तिर्यंच अकेले गाय-भैंस और कुत्तेबिल्ली का ही नाम नहीं है, तिर्यंचगति में सभी प्रकार के कीड़े-मकोड़े, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति भी शामिल है। अधिक क्या कहें निगोद भी तिर्यंचगति में ही है। १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र ३१ से ३४
SR No.008348
Book TitleDhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size437 KB
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