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ध्यान का स्वरूप
जिनागम के आलोक में -
ध्यान का स्वरूप यह एक स्थापित सत्य है कि आजतक जो भी जीव आत्मा से परमात्मा बने हैं, रागी से वीतरागी बने हैं, अल्पज्ञ से सर्वज्ञ बने हैं, सांसारिक सुख-दुखों से मुक्त होकर अनंत सुखी हुए हैं; वे सभी ध्यान की अवस्था में ही हुए हैं, आत्मध्यान की अवस्था में ही हुए हैं। अतः मुक्ति के मार्ग में आत्मध्यान की उपयोगिता असंदिग्ध है।
जिस ध्यान से यह आत्मा परमात्मा बनता है; उस ध्यान की चर्चा सम्पूर्ण जैन समाज द्वारा एक स्वर से मान्य आचार्य उमास्वामी कृत प्राचीनतम ग्रन्थराज महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र अपरनाम मोक्षशास्त्र में इसप्रकार की गई है -
"उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् - उत्तम संहननवाले के अन्तर्मुहूर्त तक एकाग्र होकर चिन्ता का निरोध ध्यान है।"
उक्त सूत्र तत्त्वार्थसूत्र के नौवें अध्याय का २७वाँ सूत्र है और इसके बाद ४४वें सूत्र तक लगातार १८ सूत्रों में विस्तार से ध्यान की चर्चा है।
महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र पर विगत दो हजार वर्षों में विभिन्न भाषाओं में अनेकानेक टीकायें लिखी गई हैं, जिनमें संस्कृत भाषा में आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी कृत सर्वार्थसिद्धि, आचार्य अकलंकदेव कृत तत्त्वार्थराजवार्तिक और आचार्य विद्यानंदी कृत श्लोकवार्तिक आदि प्रमुख हैं।
कहते हैं कि आचार्य समन्तभद्र ने इस महान ग्रन्थ पर गंधहस्ति महाभाष्य नामक एक महाभाष्य भी लिखा था; जो आज अनुपलब्ध है।
उक्त सभी टीका ग्रंथों में उक्त सूत्रों पर यद्यपि पर्याप्त प्रकाश डाला गया है; तथापि अन्तर मात्र संक्षेप व विस्तार का ही है, विषयवस्तु लगभग समान ही है।