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चलते फिरते सिद्धों से गुरु से जब क्रोध का अभाव होने के कारण परजीव को मारने का भाव भी नहीं आया तो इसमें परजीव की दया भी आ गयी; किन्तु स्व-जीव की दया आत्मा की पहचान रूप सम्यग्दर्शन के बिना संभव नहीं है। जो जीव पुण्यरूप शुभराग में धर्म मानता है, वह विकारभाव के द्वारा स्वभाव की हिंसा करता है। 'मेरा शुद्धस्वरूप पुण्य-पाप रहित हैं' - ऐसी पहिचान करने के पश्चात् ही स्व-दया हो सकती है। जब वस्तुतः स्वरूप में स्थिर हो और शुद्ध ज्ञान-चेतना के अनुभव में लीन हो, तभी स्व-जीवदया रूप धर्म होता है। इसलिए इसमें भी चेतना का शुद्धपरिणाम ही धर्म है - ऐसा आश्रम में आया है।
कोई भी व्यक्ति वास्तव में पर-जीव को न तो मार ही सकता है, न जीवित ही कर सकता है; अतः रागादि भाव करके स्वयं को दुःखी न करना ही यथार्थ स्व-दया है। अशुभपरिणामों के समय स्वयं तीव्र दुःखी होता है और दयादि के शुभपरिणामों के समय भी जीव आकुलता का ही वेदन होने से दुःखी रहता है, इसलिए अशुभ और शुभ दोनों भावों से स्वयं को बचाना ही वास्तविक स्व जीवदया है।
जो जीव शुद्ध ज्ञानचेतना द्वारा स्वरूप में एकाग्र हुआ, उस जीव के अशुभभाव होते ही नहीं, इसलिए वहाँ स्वयं ही परजीव की दया का पालन होता है। यदि परजीव की दया पालन करने के शुभराग में धर्म हो तो सिद्धदशा में जहाँ पर की रक्षा रूप दया भाव है ही नहीं तो वहाँ सब जीवों के अहिंसा धर्म का अस्तित्व कैसे संभव होगा! इससे सिद्ध होता है कि शुभराग धर्म नहीं है; वास्तविक वीतराग भाव रूप धर्म का सम्बन्ध तो त्रिकाल स्वयं के साथ ही होता है।
जो व्यक्ति निश्चय सम्यग्दर्शन के विषयभूत आत्मज्ञान और तत्त्वज्ञान से सुपरिचित नहीं है, जिन्हें सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के स्वरूप की भी पहचान नहीं है, जो सर्वज्ञता के व्यापक स्वरूप को स्वीकार नहीं करते । मात्र बाह्य क्रियाओं के निर्वाह में धर्म समझकर संतुष्ट रहते हैं और मैं सम्यग्दृष्टि हूँ!
निश्चय एवं व्यवहारनय एवं धर्म के विविध रूप - ऐसा गर्व से कहते हैं उनके बारे में आचार्य अमृतचन्द्र का निम्नांकित कथन दृष्टव्य है।
"मैं स्वयं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे कभी बन्ध नहीं होता, ऐसा मानकर जिनका मुख गर्व से ऊँचा और पुलकित हो रहा है - ऐसे रागी जीव भले ही महाव्रतादि का आचरण करें तथा समितियों की उत्कृष्टता का आलम्बन करें, तथापि वे पापी ही हैं; क्योंकि वे आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से रहित होने से सम्यक्त्वरहित हैं।" मूल कलश इसप्रकार हैं।
सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बंधो न मे स्यादित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु । आलंबंतां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा
आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः ।।१३७ ।। उपसंहार करते हुए आचार्यश्री ने कहा - आज निश्चय-व्यवहारनयों के माध्यम से आगम में वर्णित धर्म के विविध स्वरूपों की संक्षिप्त चर्चा हुई। प्रवचनों के द्वारा तो मात्र चेतना को जागृत ही किया जा सकता है, जिज्ञासा ही उत्पन्न की जा सकती है। गहराई से धर्म को समझने के लिए तो पूर्वकथित स्वाध्याय के चारों अंगों को अपनाना होगा।
प्रथम वांचना, फिर पूंछना, तत्पश्चात् अनुप्रेक्षा अर्थात् बारम्बार विचार करना, तदनन्तर आम्नाय अर्थात् चिन्हित विषय का पाठ करना। अन्त में धर्मोपदेश द्वारा दूसरों को समझाने से अपना भी स्वाध्याय होता है, जिससे अपने तत्त्वज्ञान का परिमार्जन होता है। अतः विधिवत एवं नियमित स्वाध्याय अवश्य करें।
ॐ नमः।
१. अनागार धर्मामृत प्र.अ. पृष्ठ १८ २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ४७६ ३. सर्वाथसिद्धि ९/२
४. परमात्मप्रकाश २/६८ ५. बोधपाहुड़, गाथा-२५
६. प्रवचनसार गाथा-७-८ ७. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति गाथा-८५८. भावपाहुड़, गाथा-८५ ९. परमात्मप्रकाश २/३