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________________ प्रस्तावना चलते फिरते सिद्धों से गुरु विकल्प ही नहीं आता। संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ के सिवाय अनन्तानुबंधी आदि तीनों कषायों की चौकड़ी का अभाव हो जाने से उनके पूर्ण निर्ग्रन्थ दशा प्रकट हो गई है। इस तरह जब उनके मन में ही कोई ग्रन्थि (गांठ) नहीं रही तो तन पर वस्त्र की गांठ कैसे लग सकती है? जैसे नग्न नवजात शिशु को देखकर माँ-बहिनें भी नहीं लजातीं, उसीप्रकार निर्विकारी मुनि को देखकर माँ-बहिनें लजाती नहीं हैं; बल्कि उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति विशेष बढ़ जाती है। वैसे सवस्त्र व निर्वस्त्र के पक्ष-विपक्ष में अनेकों तर्क दिये जा सकते हैं, उनके लाभ-अलाभ गिनाये जा सकते हैं। पर वे सब कुतर्क होंगे; क्योंकि वस्तु स्वरूप में कोई तर्क नहीं चलता । वस्तु का स्वरूप तो तर्क-वितर्क से परे है। इसके पीछे तर्क नहीं चलता कि अग्नि गर्म व पानी ठंडा क्यों है ? नारी के मूंछे व मोरनी के पंख क्यों नहीं होते ? इसके पीछे तर्क खोजने की जरूरत नहीं है। लौकिक दृष्टि से भी साधुओं को सामाजिक सीमाओं में नहीं घेरा जा सकता है, क्योंकि वे लोकव्यवहार से अतीत हो चुके हैं। वे तो वनवासी सिंह की तरह पूर्ण स्वतंत्र स्वावलम्बी, अत्यन्त निर्भय एवं एकान्त प्रिय होते हैं। इसीकारण वे मुख्यतया एकान्तवासी ही होते हैं। ___ यदि कोई पवित्रभाव से दिगम्बर जैन मुनियों के नग्न होने के कारणों की खोज करना चाहे तो भले करे; एतदर्थ वह पूर्ण स्वाधीन है। ___ वस्त्र तो अंतरंग वासना के एवं मनोविकार के प्रतीक हैं, पराधीनता के कारण हैं, भय, चिन्ता तथा आकुलता उत्पन्न कराने में एवं ममता, मोह बढ़ाने में निमित्त हैं, अत: मुनि नग्न ही रहते हैं। जो इन्द्रियों को जीतता है, वही जितेन्द्रिय है। मुनियों ने इन्द्रियों को जीत लिया है, अत: वे जितेन्द्रिय हैं। जिसे अखण्ड आत्मा को प्राप्त करना हो उसे अखंड स्पर्शन इन्द्रिय को जीतना ही होगा। जिसतरह शरीर में लगी छोटी सी फांस भी असह्य वेदना का कारण बनती है, उसी तरह एक वस्त्र का परिग्रह असीम दु:ख का कारण है और जब दिगम्बर मुनि को जितेन्द्रिय होने से वस्त्रादि की आवश्यकता का अनुभव ही नहीं होता तो वह वस्त्रों का परिग्रह रखकर अनावश्यक मुसीबतों को आमंत्रण ही क्यों देंगे? . जब व्यक्ति को एक वस्त्र की झंझट छूट जाने से हजारों अन्य झंझटों से सहज ही मुक्ति मिल जाती हो तो वह बिना वजह वस्त्र का बोझा ढोये ही क्यों ? एक लगोटी के स्वीकार करते ही पूरा का पूरा परिग्रह माथे मढ़ जाता है। उदाहरणार्थ - लंगोटी धारी साधु को दूसरे ही दिन लंगोटी बदलने के लिए दूसरी लंगोटी चाहिए, फिर उसे धोने के लिए पानी-साबुन, रखरखाव के लिए पेटी, पानी के लिए बर्तन, बर्तन के लिए घर, घर के लिए घरवाली, घरवाली के भरण-पोषण के लिए धंधा-व्यापार, कहाँ तक अन्त आयेगा इसका ? पूजन की पंक्ति में ठीक ही कहा है - ___ “फांस तनक ही तन में साले, चाह लंगोटी की दुःख भाले।" सवस्त्र साधु पूर्ण अहिंसक, निर्मोही और अपरिग्रही रह ही नहीं सकता । अयाचक, स्वाधीन व स्वावलंबी भी नहीं रह सकता । वह लज्जा परीषहजयी भी नहीं हो सकता, क्योंकि वस्त्र के प्रति अनुराग एवं ममता बिना वस्त्र का शरीर पर बहुत काल तक रहना एवं उसे बदलना संभव नहीं है और राग एवं ममत्व ही तो भावहिंसा है। ___ अन्नपान (भोजन) के पक्ष में भी कदाचित् कोई यही तर्क दे सकता है, पर आहार लेना अशक्यानुष्ठान है। आहार के बिना तो जीवन संभव ही नहीं है, फिर भी वे अयाचकता तथा निस्पृह वृत्ति से ही आहार लेते हैं। वस्त्र के साथ यह समस्या नहीं है। दूसरे यदि स्वाभिमान के साथ निर्दोष व निरन्तराय भोजन न मिले तो छोड़ा भी जा सकता है, छोड़ भी दिया जाता है; पर वस्त्र के साथ ऐसा होना संभव नहीं है। ऐसा नहीं हो सकता है कि आज वस्त्र न पहने जायें और कल पहन लिए जावें । वस्त्रों को तो हर हालत में वस्त्र धारण करना
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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