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प्रकाशकीय "श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागम तपोभृताम् ।
त्रिमूढ़ा षोढ़मस्टांगम् सम्यग्दर्शमस्यम् ।।४।। अर्थात् तीन मूढ़ता और आठ मद रहित तथा आठ अंग सहित सच्चे देवशास्त्र-गुरु का यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है।"
स्वामी समन्तभद्राचार्य के उक्त कथन में सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता एवं पाखंडमूढ़ता का संकल्प पूर्वक त्याग करने पर विशेष बल दिया गया है, क्योंकि इसके त्याग बिना तो सम्यग्दर्शन होना ही संभव नहीं है।
एतदर्थ आगम के आलोक में लिखी गई निर्ग्रन्थ गुरु का यथार्थ स्वरूप दर्शानेवाली एवं गुरु मूढता के अज्ञान के आवरण को हटाने वाली 'चलते फिरते सिद्धों से गुरु' कृति पाठकों के हाथों में पहुँचाते हुए मुझे जो हर्ष हो रहा है, उसे मैं वाणी में व्यक्त नहीं कर सकता । मैं भी बहुत समय से ऐसी ही कृति की आवश्यकता अनुभव कर रहा था। मेरी वह भावना प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन से पूरी हो रही है।
यदि शतांश पाठक भी इस कृति से लाभान्वित हुए तो लेखक का श्रम सार्थक हो जायेगा। __इस कृति के लेखक जैनसमाज के जाने/माने अनेक लोकप्रिय कथा कृतियों के कुशल चितेरे एवं अध्यात्म के गहन अध्येता पण्डित रतनचन्दजी भारिल्ल का इस कृति के लेखन के लिए जितना उपकार माना जाय, कम है।
सुन्दर मुद्रण के लिए अखिल बंसल, टाईपसैटिंग के लिए कैलाशचन्द्र शर्मा एवं कीमत कम करनेवाले दातारों को बहुत-बहुत धन्यवाद ।
- ब्र. यशपाल जैन, एम. ए. प्रकाशन मंत्री, पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर
प्रस्तावना|
रतनचन्द भारिल्ल दिगम्बर मुनि पाँचों इन्द्रियों के विषयों से विरक्त, अतीन्द्रिय आनन्द स्वरूप आत्मा में अनुरक्त, सभी प्रकार के आरंभ व परिग्रह से रहित दिन-रात ज्ञान, ध्यान एवं तप में निमग्न रहते हैं।
दिगम्बर मुनियों के हृदय में सब संसारी जीवों के प्रति ऐसा करुणा भाव होता है कि सभी प्राणी वस्तुस्वरूप को समझकर सन्मार्ग में लगें । एतदर्थ वे शास्त्र लिखते हैं, उपदेश देते हैं। उनकी दृष्टि में शत्रु-मित्र, महल-मशान, कंचन-कांच, निन्दा-प्रशंसा आदि में कोई अन्तर नहीं होता। वे पदपूजक और अस्त्र-शस्त्र प्रहारक में सदा समताभाव धारण करते हैं।
दिगम्बर मुनि पूर्ण स्वावलम्बी और स्वाभिमानी होते हैं। यही कारण है कि वे तिल-तुष मात्र परिग्रह नहीं रखते, नग्न रहते हैं और सिंहवृत्ति से निर्भय रहते हैं एवं भ्रमर वृत्ति से आहार लेते हैं। जब अर्द्धरात्रि में सारा जगत मोह की नींद में सो रहा होता है अथवा विषय-वासनाओं में मग्न होकर मुक्ति के निष्कंटक पथ में विषकंटक बो रहा होता है, तब दिगम्बर मुनि अनित्य आदि बारह भावनाओं के माध्यम से संसार, शरीर व भोगों की क्षणभंगुरता, अशरणता आदि का चिन्तन करते हुए आत्मध्यान में मग्न रहने का पुरुषार्थ करते रहते हैं। काम-क्रोध-मद-मोह आदि विकारों पर विजय प्राप्त करते हुए अपना मोक्षमार्ग प्रशस्त करते रहते हैं।
वे नवजात शिशुवत् अत्यन्त निर्विकारी होने से नग्न ही रहते हैं। उन्हें वस्त्र धारण करने का विकल्प ही नहीं आता, आवश्यकता ही अनुभव नहीं होती। जिसतरह काम वासना से रहित बालक माँ बहन के समक्ष लजाता नहीं है, शर्माता नहीं है एवं संकोच भी नहीं करता, निशंक रहता है। ठीक इसी तरह मुनि भी पूर्ण निर्विकारी होने के कारण लज्जित नहीं होते।
छटवें-सातवें गुणस्थान की भूमिका में वस्त्र धारण करने का मन में