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छहढाला का सार
- उक्त
'इस जीव के जन्म-मरण में, सुख-दुःख में; माँ-बाप, स्त्री-पुत्रादि कोई साथ नहीं देता, सबकुछ अकेले ही भोगना पड़ता है' चिन्तन वैराग्योत्पादक नहीं, द्वेषोत्पादक है; क्योंकि अबतक यह सोचकर कि ये कुटुम्बीजन सुख - दुःख में मेरा साथ देंगे, उनसे राग करता था और अब यह जानकर कि साथ नहीं देते, द्वेष करने लगेगा।
बारह भानाओं के चिन्तन से तो रागभाव टूटकर वैराग्यभाव होना चाहिये; पर इस चिन्तन से तो राग के स्थान पर द्वेषभाव होगा।
अरे भाई ! बात यह है कि स्त्री-पुत्रादि साथ देते नहीं हैं या दे नहीं सकते ? - दोनों बातों में बहुत बड़ा अन्तर है।
जब हम यह सोचते हैं कि साथ देते नहीं हैं तो राग के स्थान पर द्वेष हो जाता है; किन्तु जब हम यह सोचते हैं कि साथ दे नहीं सकते, राग-द्वेष का अभाव होकर वैराग्य हो जाता है, वीतरागभाव पैदा होता है, साम्यभाव पैदा होता है।
वस्तुस्थिति भी यही है कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वयंकृत कर्मों का फल स्वयं ही भोगना होता है, कोई अन्य व्यक्ति उसे बाँट नहीं सकता ।
इसीप्रकार इसे इस बात का दुःख है कि इस जीव को जन्म-मरण के दुःख भी अकेले ही भोगने पड़ते हैं, स्वर्ग-नरक - निगोद में भी अकेले ही जाना पड़ता है।
पर भाईसाहब ! सोचने की बात यह है कि क्या आप यह चाहते हैं कि आपके साथ ही आपके बाल-बच्चे भी मर जावें ? नहीं तो फिर यह शिकायत क्यों ? जन्म के सम्बन्ध में भी बात ऐसी है कि यदि आपका पुत्र आपका जन्म का साथी होता तो फिर वह पुत्र नहीं, जुड़वा भाई होता । यदि पत्नी जन्म की साथी होती तो वह भी पत्नी नहीं, जुड़वा बहन होती।
एक बात यह भी तो है कि मनुष्यगति में तो अधिकांश लोगों का
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पाँचवाँ प्रवचन
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जन्म अकेले ही होता है। यदि आपको जन्म के साथी चाहिये थे तो फिर कूकरी - सूकरी के उदर से जन्म लेते तो वहाँ पाँच-सात का तो मिल ही जाता। इससे भी अधिक का साथ चाहिये तो फिर सर्पिणी के पेट से पैदा होते तो वहाँ हजारों का साथ मिल जाता।
यह तो आप जानते होंगे कि सर्पिणी के एक साथ हजारों बच्चे पैदा होते हैं; पर यह ध्यान रहे वह सर्पिणी कुण्डली मारकर उसमें बच्चों को जन्म देती है और उनके जन्मते ही उन्हें खा जाती है। वे जान बचाकर भागते हैं। मिट्टी में लुक-छिपकर दस-बीस मुश्किल से बच पाते हैं। दस-बीस बचते हैं, तब तो दुनियाँ में इतने साँप हैं। यदि सभी बच जाते तो दुनियाँ में साँप ही साँप होते ।
जिस माँ के हजारों बच्चे एकसाथ पैदा होते हैं, उस माँ का हृदय ऐसा निर्दयी होता है कि स्वयं माँ बच्चों को खा जाती है और जिसका बच्चा अकेला पैदा होता है, उसकी माँ उसकी चिन्ता मरते दम तक रखती है।
यदि तुम्हारा काम इतने साथियों से भी न चले तो फिर एक स्थान ऐसा भी है कि जहाँ अनन्त जीव एक साथ जन्मते हैं और एक साथ मरते हैं; उस स्थान का नाम है निगोद। इसप्रकार साथ की भावना निगोद की भावना है और एकत्व की भावना मोक्ष की भावना है।
इस जगत में एकत्व ही सत्य है, शिव है और सुन्दर है। मैंने तो बहुत पहले लिखा था कि -
ले दौलत प्राणप्रिया को तुम मुक्ति न जाने पावोगे ।
यदि एकाकी चल पड़े नहीं तो यही खड़े रह जावोगे ।
पर से भिन्नता और अपने में अखण्डता एकता आत्मा का सौन्दर्य है; यह आत्मा का परम सौभाग्य है, क्योंकि यह आनन्द का जनक है।
अनित्य, अशरण और संसार भावना में संयोगों की अनित्यता, अशरणता और असारता बताने के उपरान्त एकत्व और अन्यत्व भावना