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________________ छहढाला का सार है तो पर खोटी है, इसलिये दुःखी है। ऐसी स्थिति में यह प्राणी सुख की नींद कैसे सो सकता है ? ८८ जिनके पुण्य का उदय है, उनको भी सदा सुख नहीं है । इस जगत को यथार्थ रूप से देखें तो सभी दुःख देनेवाले ही दिखाई देते हैं। अरे भाई ! जरा विचार तो करो कि यदि इस चतुर्गति-भ्रमणरूप संसार में सुख होता तो तीर्थंकर जैसे पुण्यवंत महापुरुष इसे छोड़कर क्यों चले जाते, संयम धारण कर मुक्ति प्राप्त करने का पुरुषार्थ क्यों करते? संयोगों में सुख खोजना समय और शक्ति का अपव्यय है । जिसप्रकार कितना ही मंथन क्यों न करो, पानी में से नवनीत निकलना सम्भव नहीं है; कितना ही पेलो, बालू में से तेल निकलना सम्भव नहीं है; उसीप्रकार सुख की प्राप्ति के लिये संयोगों की शोध-खोज में किये गये सम्पूर्ण प्रयत्न निरर्थक ही हैं, उनसे सुख की प्राप्ति कभी भी सम्भव नहीं है। सुख की प्राप्ति के लिये तो सुख के सागर निजस्वभाव की शोधखोज आवश्यक है, निजस्वभाव का आश्रय आवश्यक है, उसी का ज्ञान- श्रद्धान आवश्यक है, ध्यान आवश्यक है। - इसप्रकार का चिन्तन ही संसारभावना का मूल है। इसप्रकार हम देखते हैं कि अनित्यभावना में संयोगों की क्षणभंगुरता, अशरणभावना में संयोगों की अशरणता और संसारभावना में संयोगों की असारता का, निरर्थकता का चिन्तन किया जाता है और संयोगों पर से दृष्टि हटाकर स्वभावसन्मुख होने का प्रयास किया जाता है। इस पर कोई कहता है कि संसार में दुःख ही दुःख है तो कोई बात नहीं है; क्योंकि हम अकेले थोड़े ही हैं, मिलजुलकर सबकुछ भोग लेंगे। उनसे आगे एकत्व और अन्यत्व भावना में कहते हैं कि इस लोक में मिलजुलकर भोगने की कोई व्यवस्था नहीं है; प्रत्येक प्राणी को (45) पाँचवाँ प्रवचन स्वयंकृत कर्मों का फल अकेले ही भोगना होगा। जैसा कि कहा है - शुभ-अशुभ करम फल जेते, भोगे जिय एक हि ते ते । सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी ।। जल - पय ज्यौं जिय- तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला । तो प्रकट जुदे धन धामा, क्यों है इक मिलि सुत रामा ।। शुभ और अशुभ कर्मों के जितने भी फल प्राप्त होते हैं; उन सभी को जीव स्वयं अकेले ही भोगता है। उक्त फल भोगने में स्त्री-पुत्रादि साथी नहीं हैं; क्योंकि सभी लोग स्वार्थ के साथी हैं। यद्यपि जिसप्रकार दूध और पानी का मिलाप होता है; उसीप्रकार का मिलाप जीव और शरीर का है; तथापि जिसप्रकार दूध और पानी भिन्न-भिन्न ही हैं; उसीप्रकार शरीर और जीव भी भिन्न-भिन्न ही हैं। जब शरीर और जीव की यह स्थिति है तो फिर धन, मकान, पत्नी और पुत्र तो प्रगट रूप से भिन्न ही हैं; वे अभिन्न कैसे हो सकते हैं ? पण्डित भूधरदासजी भी इस बात को इसीप्रकार प्रस्तुत करते हैं - आप अकेला अवतरे मरे अकेला होय । यो कबहूँ या जीव को साथी सगा न कोय ।। जहाँ देह अपनी नहीं तहाँ न अपना कोय | घर सम्पत्ति पर प्रगट हैं, पर हैं परिजन लोय ।। यह जीव स्वयं अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरण को प्राप्त होता है। इसप्रकार इस जीव का कोई सगा साथी नहीं है। अरे भाई ! जब शरीर ही अपना नहीं है, तब अन्य कोई अपना कैसे हो सकता है ? घर, सम्पत्ति और कुटुम्बीजन तो प्रगट रूप से पर हैं; उन्हें अपना कैसे माना जा सकता है ? एकत्व और अन्यत्व भावना के सन्दर्भ में भी जगत की समझ ठीक नहीं है; क्योंकि इनके चिन्तन से भी यह खेद - खिन्न हो जाता है।
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
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