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________________ छहढाला का सार बड़े-बड़े इन्तजाम किये हैं। किले कोट की बात तो बहुत पुरानी हो गई; अब तो हम परमाणु हथियारों से सुसज्जित हैं और इस दिशा में प्रयत्नशील हैं कि हमें समय आने पर भी न मरना पड़े। * नाम 'समय के पहले कोई मार न दे' इसके लिए हमने बन्दूक की गोलियाँ बनाईं और 'समय आने पर भी न मर जाये' - इसके लिए जीवनरक्षक (एन्टीबायोटिक) गोलियाँ बनाईं। इसप्रकार रक्षा पर मारक सामग्री का ही निर्माण किया है। यदि परमाणु हथियार प्राणिजगत का सर्वविनाश करनेवाले हैं तो ये जीवनरक्षक दवायें भी कीटाणुजगत की नाशक हैं। कैसा विचित्र संयोग है कि अमर होने के लिये मारने की व्यवस्था, क्या इसी का नाम सुरक्षा है ? जब अनित्य और अशरण भावना के चिन्तन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं न तो कोई हमें समय के पहले मार ही सकता है और न कोई समय आने पर बचा ही सकता है; तब हमें न तो कोई भय का कारण रह जाता है और न स्वसमय में होनेवाले मरण से बचने के लिए कुछ करने को ही रह जाता है; फिर चिन्ता किस बात की ? इसप्रकार ये दोनों भावनायें मरणभय पैदा करनेवाली नहीं, मरणभय को दूर करनेवाली भावनायें हैं । इस छहढाला में भी कहा है कि - जोबन गृह गोधन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी । इन्द्रिय-भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई ।। सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि काल दले ते । मणिमन्त्र-तन्त्र बहु होई, मरतें न बचावे कोई ।। जवानी, घर, गाय-भैंस आदि गोधन, स्त्री, हाथी-घोड़ा, आज्ञाक (43) पाँचवाँ प्रवचन सेवकजन और इन्द्रियों की भोगसामग्री इन्द्रधनुष और आकाश में चमकनेवाली बिजली के समान क्षणभंगुर हैं। जिसप्रकार भयंकर वन में सिंह पशुओं को मार डालता है; उसीप्रकार जितने भी देव, दानव और विद्याधरों के राजा हैं; वे सब कालरूपी यमराज से दले जाते हैं, मसले जाते हैं, मार दिये जाते हैं। इस जगत में चिन्तामणि रत्न, मन्त्र-तन्त्र बहुत हैं; पर मरने से कोई नहीं बचा सकता । प्रत्येक वस्तु स्वभाव से नित्य है तो पर्याय से क्षणभंगुर (अनित्य) भी है। यदि मूल वस्तु कभी नहीं बदलती है तो सदा एकसी भी नहीं रहती। न बदलकर भी बदलती है और बदलकर भी नहीं बदलती। इसीप्रकार यह आत्मा मरकर भी अमर है और अमर होकर भी मरणशील है। कभी न बदलने के समान निरन्तर बदलते रहना भी इसका स्वभाव है। अरे भाई ! यह निरन्तर बदलते रहने वाला स्वभाव भी हमारे हित में ही है; क्योंकि यदि हम बदलेंगे नहीं तो फिर मोक्ष में कैसे जायेंगे ? यदि हम मरेंगे नहीं तो इस सड़ी-गली देह से छुटकारा कैसे मिलेगा ? यदि हम इसी पर्याय में जमे रहेंगे तो हमें नई पर्याय कैसे मिलेगी और हमारी आगामी पीढ़ी भी कैसे आयेगी ? अतः हमें 'समय पर जन्मना और समय पर मरना' - इस परम सत्य को सच्चे दिल से स्वीकार करना चाहिये; क्योंकि नित्यता के समान अनित्यता भी वस्तु का स्वभाव है। जो स्वभाव हो, वह दुःखरूप या दु:खकर कैसे हो सकता है ? मैं बहुत पहिले लिखा था कि - जब अनित्यता वस्तुधर्म तब क्यों कर दुखकर हो सकती । जब स्वभाव ही दुखमय तो सुखमयी कौनसी हो शक्ति ।।
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
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