________________
छहढाला का सार
पाँचवाँ प्रवचन
इन चार शिक्षाव्रतों के नाम क्रमश: इसप्रकार हैं- १. सामायिक, २. प्रोषधोपवास, ३. भोगोपभोगपरिमाणव्रत और अतिथिसंविभाग। ___ आत्मचिन्तन और आत्मध्यानरूप होने से सामायिक तो सर्वोत्कृष्ट धर्म है। इसी सामायिक व्रत की साधना के लिये प्रोषधोपवास किया जाता है। जिन अहिंसक भोगोपभोग की वस्तुओं का त्याग नहीं है। उनमें भी सीमा तो सुनिश्चित करना ही चाहिये; क्योंकि उनका भी असीम भोग तो उचित नहीं है। ___ अतिथि कहते ही उसे हैं, जिसके आने की कोई तिथि निश्चित न हो। मुख्यरूप से महाव्रती मुनिराज ही वास्तविक अतिथि हैं, अणुव्रती श्रावक भी इनमें ही आते हैं। तो शुद्ध-सात्विक भोगोपभोग सामग्री हमने अपने लिए संग्रहीत की है, बनाई है; उसमें से ही एक सुनिश्चित भाग अतिथियों को देना अतिथिसंविभागवत है।
ये व्रत मुनिव्रत धारण करने की शिक्षा देते हैं; इसलिए शिक्षाव्रत हैं। अन्त में इन व्रतों का फल बताते हुये कहते हैं -
बारह व्रत के अतिचार, पन पन न लगावै । मरण समय संन्यास धारि, तसु दोष नशावै ।। यों श्रावक व्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपजावै ।
तहँ तैं चय नर जन्म पाय, मुनि लै शिव जावै ।। उक्त बारह व्रतों में प्रत्येक व्रत के पाँच-पाँच अतिचार होते हैं; उन्हें भी न लगने दे और मृत्यु का समय नजदीक आने पर संन्यास (समाधिमरण-सल्लेखना) धारण करके उस संन्यासव्रत का भी निरतिचार पालन करे। इसप्रकार व्रती श्रावक इन बारह व्रतों का पालन करके सोलहवें स्वर्ग में उत्पन्न होता है और वहाँ से चयकर मनुष्य भव पाकर, मुनि होकर मोक्ष चला जाता है।
तीन भुवन में सार, वीतराग-विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहूँ त्रियोग सम्हारिकै।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और एकदेशचारित्र की चर्चा हो चुकी है। अब सकलचारित्र के विवेचन के पहले बारह भावनाओं की चर्चा करते हैं; क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति सकलचारित्र (मुनिधर्म) को धारण करता है, तब उसके पूर्व बारह भावनाओं का चिन्तन अवश्य करता है।
यही कारण है कि दौलतरामजी ने छहढाला में मुनिधर्म की चर्चा करने के पूर्व और देशचारित्र की चर्चा के उपरान्त बारह भावनायें रखी हैं। गृहस्थ और सन्त - दोनों ही बारह भावनाओं का चिन्तन करते हैं, मध्यदीपक के रूप में एक कारण यह भी हो सकता है।
पण्डित दौलतरामजी पाँचवीं ढाल के पहले ही छन्द में लिखते हैं कि वे मुनिराज बड़े भाग्यवान हैं; जो सांसारिक भोगों से विरक्त हैं और जो वैराग्य की उत्पत्ति के लिये बारह भावनाओं का चिन्तवन करते हैं।
देखो, यहाँ सर्वाधिक विभूतिवाले चक्रवर्तियों को भाग्यवान नहीं कहा, अपितु सबकुछ छोड़ देनेवाले सन्तों को भाग्यवान कहा है। यह इस बात का प्रमाण है जोड़नेवाले से छोड़नेवाला महान होता है। ___ मुनिराज वैराग्य की उत्पत्ति के लिये बारह भावनाओं का चिन्तवन करते हैं; इसका अर्थ यह हुआ कि वह चिन्तवन ही बारह भावनाओं का चिन्तवन है कि जिससे वैराग्य की उत्पत्ति हो। अगली ही पंक्ति में वे लिखते हैं कि जिसप्रकार हवा के लगने से अग्नि प्रज्वलित हो उठती है;
(41)