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________________ ७६ छहढाला का सार चौथा प्रवचन अब यहाँ एकदेश चारित्र की बात आरंभ करते हैं। उसमें सबसे पहले पाँच अणुव्रतों की चर्चा आती है। त्रसहिंसा को तो पूर्णत: त्याग दे और बिना प्रयोजन स्थावर जीवों की भी हिंसा नहीं करें - यह अहिंसाणुव्रत है, दूसरे के जीवन को खतरे में डालनेवाले कठोर और निंदनीय वचन नहीं बोलना सत्याणुव्रत है, जल और मिट्टी को छोड़कर अन्य किसी भी वस्तु को बिना दिये नहीं लेना अचौर्याणुव्रत है, धर्मानुकूल विवाहित अपनी पत्नी को छोड़कर अन्य सभी स्त्रियों से विरक्त रहना ब्रह्मचर्याणुव्रत है और अपनी शक्ति के अनुसार सीमित परिग्रह रखना परिग्रहपरिमाणाणुव्रत है। __ पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक त्रसहिंसा का त्यागी होने पर भी स्थावर जीवों के घात से पूर्णत: नहीं बच पाता है; क्योंकि घर बनाना, व्यापार करना आदि ऐसे कार्य हैं, जिनमें पृथ्वीकायिक जीवों का घात होता है; नहाना-धोना आदि ऐसे कार्य हैं, जिनमें जलकायिक जीवों का घात होता है; रोटी बनाना आदि ऐसे कार्य हैं, जिनमें अग्निकायिक जीवों का घात होता है; पंखा चलाना आदि ऐसे कार्य हैं, जिनमें वायुवायिक जीवों का घात होता है और साग-सब्जी आदि का उपयोग ऐसा कार्य है, जिसमें वनस्पतिकायिक जीवों का घात होता है। यही कारण है कि यहाँ इनका विना प्रयोजन घात नहीं करने की बात कही गई है। 'वृथा थावर न संहारे' - यह कहकर उक्त सम्पूर्ण कथन को दौलतरामजी ने एक पंक्ति में समेट दिया है। इसीप्रकार सत्यादि व्रतों को भी एक-एक पंक्ति में ही प्रस्तुत कर दिया है। जो क्रियायें अणुव्रतों में गुण पैदा करें, उन्हें गुणव्रत कहते हैं। ये गुणव्रत तीन प्रकार के होते हैं; जो इसप्रकार हैं - दिव्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत। इनकी चर्चा करते हुये दौलतरामजी लिखते हैं - दश दिशि गमन प्रमान ठान, तसु सीम न नाखै ।। ताह में फिर ग्राम, गली गृह बाग बजारा । गमनागमन प्रमान, ठान अन सकल निवारा ।। काह की धन-हानि, किसी जय-हार न चिन्तै। देय न सो उपदेश, होय अघ वनज कृषी तैं ।। कर प्रमाद जल भूमि, वृक्ष पावक न विराधै। असि धनु हल हिंसोपकरन, नहिं दे यश लाधै ।। राग-द्वेष करतार कथा, कबहूँ न सुनीजै। औरहु अनरथ दंड, हेतु अघ तिन्हें न कीजै ।। दशों दिशाओं में जीवनपर्यंत के लिये गमनागमन का परिमाण सुनिश्चित कर लेना और उस की गई सीमा का उल्लंघन नहीं करना दिग्वत नाम का गुणव्रत है। दिग्व्रत में की गई मर्यादा में समय सीमा को कम करके गाँव, गली, घर, बाग, बजार आदि की मर्यादा बाँधकर गमनागमन का परिमाण सुनिश्चित कर लेना और उतने समय उक्त सीमा के बाहर नहीं जाना देशव्रत है। व्रती श्रावक किसी की धनहानि और किसी की जीत-हार के बारे में चिन्तवन न करे; जिसमें अधिक हिंसादि पाप हों, ऐसे व्यापार और कृषि आदि करने का उपदेश न दे; प्रमाद के वश होकर बिना प्रयोजन भूमि, जल, अग्नि, वायु और वृक्षों की विराधना नहीं करे; हिंसा के उपकरण तलवार, धनुष, हल देकर यश कमाने की कोशिश नहीं करे; जो कथायें या चर्चा-वार्ता राग-द्वेष को प्रोत्साहन देनेवाली हो, उन कथाओं की चर्चा-वार्ता कभी भी नहीं करे। इनके अतिरिक्त बिना प्रयोजन और भी पाप नहीं करे। यह अनर्थदण्डव्रत है। ___दश दिशाओं की जीवनपर्यंत के लिए मर्यादा निश्चित कर लेना और उस सीमा के बाहर कभी नहीं जाना दिग्वत है। चार दिशायें, चार विदिशायें और ऊपर व नीचे - ये दस दिशायें हैं। (39)
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
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