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छहढाला का सार
आत्मा के अनन्त दुःखों का एकमात्र कारण है और जिसे ज्ञानरूपी मेघों की वर्षा के अतिरिक्त कोई नहीं बुझा सकता।
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इसलिये हे भाई ! पुण्य के फल में प्राप्त होनेवाले अनुकूल पंचेन्द्रिय विषयों को पाकर हर्षित होना और पाप के फल में प्राप्त होनेवाले प्रतिकूल संयोगों में बिलख-बिलखकर रोना धर्मात्मा सम्यग्दृष्टि का काम नहीं है; क्योंकि अनुकूल-प्रतिकूल संयोग तो पौद्गलिक पर्यायें हैं, जो आती-जाती रहती हैं; इनसे हमारा कोई बिगाड़-सुधार नहीं है।
लाख बात की बात तो यह है कि इन संयोगों पर से उपयोग को हटाकर निश्चय के विषयभूत आत्मा को अपने हृदय में स्थापित करो और जगत के सभी मानसिक द्वन्दों और शारीरिक फंदों को छोड़कर अपने आत्मा का ध्यान करो।
हम तो दुनियादारी के कार्यों को ही दंद- फंद समझते हैं; किन्तु यहाँ यह कहा जा रहा है कि अपने आत्मा के ज्ञान-ध्यान विना जो कुछ भी करोगे, वह सब दंद - फंद ही है। तात्पर्य यह है कि शुद्धपरिण और शुद्धोपयोग के अतिरिक्त जितना भी क्रियाकाण्ड और शुभभावरूप आचरण है, वह सभी दंद- फंद ही है। इसमें पूजा-पाठ, तीर्थयात्रा आदि सभी क्रियाकाण्ड और तत्संबंधी शुभभाव भी आ जाते हैं।
ध्यान रहे, यहाँ धर्म के नाम पर होनेवाले समस्त बाह्याचरण का निषेध किया जा रहा है; एकमात्र आत्मज्ञान, आत्मश्रद्धान और आत्मध्यान को ही धर्म बताया जा रहा है ।
सम्यग्ज्ञान की महिमा बताने के उपरान्त अब सम्यक्चारित्र की बात करते हैं । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक होनेवाला चारित्र दो प्रकार का होता है - एकदेशचारित्र और सकलदेशचारित्र ।
एकदेशचारित्र में हिंसादि पापों का एकदेश त्याग और अहिंसादि व्रतों का एकदेश पालन होता है और सकल चारित्र में हिंसादि पापों का पूर्णत: त्याग और अहिंसादि व्रतों का पूर्णतः पालन होता है।
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चौथा प्रवचन
यही कारण है कि एकदेशचारित्र में होनेवाले व्रतों को अणुव्रत और सकलदेशचारित्र में होनेवाले व्रतों को महाव्रत कहा जाता है।
एकदेशचारित्र पंचम गुणस्थानवर्ती अणुव्रती श्रावकों के होता है और सकलचारित्र मुनिराजों के होता है।
अब इस ढाल में मात्र एकदेशचारित्र की चर्चा होगी। सकलचारित्र की चर्चा छटवीं ढाल में की जायेगी।
ध्यान रहे, पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावकों के व्रत बारह प्रकार के होते हैं; जिनमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत होते हैं। अब सबसे पहले पाँच अणुव्रतों की बात करते हैं - सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि दृढ़ चारित लीजै । एकदेश अरु सकलदेश, तसु भेद कहीजै ।। सहिंसा को त्याग, वृथा थावर न संघारै । पर- वधकार कठोर निंद्य, नहिं वयन उचारै ।। जल मृत्तिका बिन और, नाहिं कछु गहै अदत्ता । निज वनिता बिन सकल, नारि सौं रहै विरत्ता ।। अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखै ।
इसकी पहली ही पंक्ति में कवि यह कह रहा है कि पहले सम्यग्ज्ञानी होओ; उसके बाद चारित्र धारण करने की बात करना। चूँकि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ पैदा होते हैं; इसलिए न केवल सम्यग्ज्ञानी, साथ में सम्यग्दृष्टि होने की भी बात है।
इसप्रकार यह सुनिश्चित है कि सम्यग्दृष्टि और सम्यज्ञानी होकर ही चारित्र धारण किया जाता है- यहाँ एक बात यह कही और दूसरी बात यह है कि चारित्र को धारण करो तो दृढ़ता से करो, दृढ़ चारित्र धारण करो, यों ही ढुलमुल व्रतों को ले लेना और उन्हें जैसे-तैसे ढोते रहने से कुछ भी होनेवाला नहीं है।
यह तो पहले कह ही चुके हैं कि वह चारित्र दो प्रकार का होता है। १. एकदेशचारित्र और २. सकलदेशचारित्र ।