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________________ छहढाला का सार पहला प्रवचन (सोरठा) वीतराग-विज्ञान, मंगलमय मंगलकरण । अरहतादि महान, नमो ताहि जाते भये ।। इसीप्रकार छहढाला के मंगलाचरण के सोरठा को भी दोहा में बदला जा सकता है। यह छहढाला नामक ग्रन्थ सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज में न केवल सर्वमान्य है, अपितु अत्यन्त लोकप्रिय भी है। ऐसे लोग तो इस जगत में मिल जायेंगे, जो समयसार का नाम सुनकर नाक-भौं सिकोड़ें; लेकिन ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं मिलेगा कि जिसे छहढाला स्वीकृत न हो। इसलिए मैं कहता हूँ कि दिगम्बर जैन समाज की एकता का यदि कोई सबसे बड़ा आधार बन सकता है तो यह छहढाला ग्रन्थ बन सकता है। शायद आपको यह पता नहीं है कि जिन दौलतरामजी ने यह छहढाला लिखी है, वे दिल्ली निवासी थे। आपने पढ़ा होगा कि उनका जन्म हाथरस के पास सासनी (उ. प्र.) में हुआ था। मेरा जन्म भी उत्तरप्रदेश के ललितपुर जिले के एक छोटे से गाँव बरौदास्वामी में हुआ था; पर अब मैं ४० वर्ष से जयपुर में रह रहा हूँ। ऐसी स्थिति में मैं आपसे ही पूछना चाहता हूँ कि मैं कहाँ का हूँ ? अब आप मुझे कहाँ का मानते हैं - जयपुर का या बरौदास्वामी का? अब तो आप मुझे जयपुर का ही मानते है न ? इसीप्रकार पण्डित दौलतरामजी ने अपने जीवन के अन्तिम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्ष दिल्ली में ही बिताये थे; इसलिए हम उन्हें दिल्ली का कहे या सासनी का? जन्म सासनी में हुआ होगा, उनके पिताजी वगैरे हाथरस में व्यापार करते थे। वे भी उनके साथ कुछ दिन हाथरस में व्यापार करते रहे। फिर कुछ दिन वे मथुरा भी रहे। कई जगह घूमे, लेकिन उनका समाधिमरण दिल्ली में ही हुआ था। न केवल समाधिमरण हुआ, पर अन्तिम समय में अनेक वर्षों तक वे दिल्ली में ही रहे और उन्होंने सम्मेदशिखर की यात्राएँ भी दिल्ली के समाज के साथ की। इसलिए अब यह ठीक ही है कि वे दिल्लीवासी ही थे। इस छहढाला की विषयवस्तु और प्रतिपादन क्रम महापण्डित टोडरमलजी के मोक्षमार्गप्रकाशक से और प्रतिपादन शैली महाकवि बुधजनजी से प्रभावित है। उन्होंने स्वयं लिखा है कि लख बुधजन की भाख । बुधजन कवि ने भी इसके पहले एक छहढाला लिखी थी। उसे देखकर इन्हें छहढाला लिखने का उत्साह जागृत हुआ। यद्यपि बुधजनजी के पहले द्यानतरायजी ने भी एक छहढाला लिखी थी, लेकिन वह इतनी लोकप्रिय नहीं हो पाई; जितनी बुधजनजी की हुई। दौलतरामजी की छहढाला तो हर आदमी के कंठ का हार बन गई है। यह छहढाला छह प्रकार के छन्दों में है, इसे छह रागों में गाया जाता है, इन्हीं रागों को ढाल कहा जाता है। इसप्रकार इस कृति का नाम छहढाला रखा गया। पहली ढाल चौपाइयों में, दूसरी ढाल पद्धरी छन्द में, तीसरी ढाल नरेन्द्र छन्द (जोगीरासा) में, चौथी ढाल रोला छन्द में, पाँचवीं ढाल चाल छन्द में और छठवीं ढाल हरिगीतिका छन्द में है। दूसरी बात यह है कि एक तलवार होती है और एक ढाल । तलवार मारने के काम आती है और ढाल अपनी रक्षा के काम आती है। ___ हम जैनी अहिंसक हैं, इसलिए हम मारने की बात तो कभी सोच भी नहीं सकते; परन्तु अपनी सुरक्षा की चिंता तो हरेक को होती ही है। इसलिए हमें ढाल की जरूरत है, तलवार की नहीं। हमें खतरा भी इस जगत के जीवों से नहीं; अपने ही राग, द्वेष, मोह - इन विकारी भावों से है। इन भावों से बचाने के लिए यह छहढाला ढाल का काम करता है, इसलिए इसका नाम है छहढाला। (2)
SR No.008345
Book TitleChahdhala Ka sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherDigambar Jain Vidwatparishad Trust
Publication Year2007
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Karma
File Size237 KB
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