SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ भक्तामर प्रवचन काव्य-४० १३७ का समय आया तब वह इन्द्र और कुबेर को भी उसे बचाने का भाव नहीं आया अथवा बचा नहीं सके । इससे स्पष्ट होता है कि जो होना होता है, वह होता ही है। केवलज्ञानी भगवान नेमिनाथ ने जो जाना था एवं कहा था, वही हुआ; उसमें कुछ नया नहीं हुआ - ऐसा विचार कर सब चले जाते हैं और उनमें से कितने तो ध्यान में बैठ जाते हैं और अग्नि में जलते हुए भी एक भवावतारी हो जाते हैं। हे भगवन् ! जो तेरी शरण में आ गया, उसे किसी प्रकार की अग्नि का भय नहीं रहता। पवित्रता क्या है ? पुण्य क्या है ? सुख-दुःख क्या है ? - यह सब ज्ञानी के उपदेश द्वारा सुनने-समझने के लिए मिलता है। इसलिए जो कुछ तत्त्वलाभ होता है, वह ज्ञानी के कारण मिलता है - ऐसा कहते हैं। ज्ञानी सच्चा ज्ञान कराना चाहता है। अज्ञानी को तो सच्चा ज्ञान ही नहीं है। अत: अज्ञानी केवचन से वास्तविक पुण्य व पुण्य का फल जानने में नहीं आता। ज्ञानी के वचन से ही वास्तविक पुण्यपवित्रता व उसका फल आदि जाना जाता है। अत: आत्मकल्याण के इच्छुक को तत्त्वज्ञानियों का अधिक से अधिक सत्संग करना योग्य है। प्रलयकाल के पवन से प्रज्ज्वलित दावानल को भी पूर्ण शान्त कर देता है। भयंकर दावाग्नि के अंगारे सुलग रहे हों, वहाँ भी तुम्हारे भक्त को भय नहीं होता; क्योंकि वह जानता है कि अस्पर्श स्वभावी आत्मा को अग्नि का स्पर्श ही नहीं हो सकता। सच्चे प्रलयकाल के तूफान सदश वायुवेग से प्रकृपित प्रचंड [जिसमें हजारों स्फुलिंग (चिन्गारियाँ) निकलती हों, ऐसी ] अग्नि तो पुण्योदय से धर्मात्माओं को स्पर्श करती ही नहीं; किन्तु जो धर्मी ज्ञानानन्द में मग्न हैं, उन्हें कषाय-अग्नि भी स्पर्श नहीं करती है। सम्पूर्ण जगत को भस्म कर देनेवाली भयंकर अग्नि मानो हम सभी को भस्म कर देगी- ऐसा लगता हो, तथापि हे नाथ ! आपका भक्त बाल-बाल बच जाता है। जैसे उसे अन्तर में मिथ्यात्व एवं रागादि प्रभावित नहीं कर सकते, उसीतरह बाहर में अग्नि भी उसे नहीं जला सकती। पहाड़ों में से जब लावा निकलता है तो लोगों को दुःख होता है तथा जमीन में रहनेवाले अरबों कीड़ेमकोड़े बाहर निकलते हैं। एक-एक मील लम्बा-चौड़ा ऊँचा दलदल निकलता है। जिस गाँव में लावा निकलता है, वहाँ एवं उसके आस-पास के पशु एवं मनुष्य नहीं बच सकते; तथापि आपके भक्तों को कष्ट नहीं होता। कदाचित् धर्मी जीवों को असाता के उदय से बाह्य में ऐसा वातावरण भी बन जाये; तथापि अन्तर में अकषाय स्वभाव की शरण लेकर निर्भय रहता है। हे नाथ ! जो आपकी अविकारी शरण में आया, उसे कषाय अग्नि भय उत्पन्न नहीं कर सकती। जब द्वारिका नगरी छह माह तक जलती रही, तब वहाँ कितने ही जीव तो आत्महित का विचार कर रहे थे, आत्मा का ही ध्यान कर रहे थे। कितनों को मुनि होने का भाव हो रहा था। उनमें से कितनों को तो उनके पुण्योदय से देवगण वहाँ से उठाकर सुरक्षित स्थान पर भी ले गये थे, शेष अपने पूर्व में बाँधे हुए पापोदय के कारण अग्नि में भस्म भी हुए ही होंगे और कितने ही अज्ञान के कारण कषाय की अग्नि में भी जले होंगे। देखो, इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने द्वारिका नगरी बनवाई थी तथा जब जलने व्यवहार क्या ? मिथ्यादृष्टि शुभराग से लाभ मानता है; उसके शुभराग को व्यवहार नहीं कहते। मिथ्या अभिप्राय रहित होकर शुद्ध आत्मा के आलम्बन से सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र और शुक्लध्यानादि की पर्याय प्रगट होती है। छहों द्रव्य स्वतन्त्र हैं - ऐसा प्रथम समझना चाहिए और जीव में होनेवाली पर्याय क्षणिक है, वह उत्पाद-व्ययरूप है। धर्म पर्याय में होता है, किन्तु पर्याय के आश्रय से धर्म नहीं होता। सच्चे देव-गुरु-शास्त्र का शुभराग आये, उसके आधार से धर्म नहीं है। उसका भी आश्रय छोड़कर शुद्धस्वभाव के आश्रय से धर्म प्रगट करे, यह निश्चय है; इसलिये निश्चय प्रथम होता है। जिसे ऐसे निश्चय का भान हो - ऐसे धर्मी जीव के शुभराग को व्यवहार कहते हैं। - आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी मोक्षमार्गप्रकाशक की किरणें, पृष्ठ : ११५
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy