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________________ १३४ भक्तामर प्रवचन केवलज्ञान की शरण अर्थात् स्वभाव की शरण होने पर सिंह का डर नहीं लगता। अन्तर में निर्मलता रहती है। पर्याय में कर्म का निमित्त है। वे कहते हैं कि हे प्रभु! आपके चरणों की शरण लेनेवालों को वध, बंधन या सिंहादिकका भय नहीं रहता। अल्प अस्थिरता को गौण करके ऐसा कहा है कि सम्यग्दृष्टि को भय नहीं है। संयोगों पर दृष्टि रखनेवालों की निमित्तों को कर्त्ता मानने की मान्यता नहीं छूटती। क्रम अर्थात् पग । जैसे - दायाँ-बायाँ पग क्रम-क्रम से उठता है, उसीप्रकार प्रत्येक पर्याय का होना क्रमबद्ध है। उसमें कुछ फेरफार करना नहीं रहता।अत: कर्त्तापने के भेद की आकुलता छोड़कर स्वयं ज्ञाता-दृष्टा है - ऐसा निर्णय करे तो केवलज्ञान का निर्णय होता है तथा यथार्थ निर्णय होने पर 'निमित्त आये तो उपादान में कार्य हो' - ऐसी मान्यता छूट जाती है। स्व-पर की स्वतंत्रता का निर्णय करे तो वस्तुस्वभाव का निर्णय हो तथा वस्तुस्वभाव का निर्णय होने से प्रत्येक समय की पर्याय की स्वतंत्रता का निर्णय होता है। उससे यह निर्णय होता है कि 'निमित्त से कथन होता है, किन्तु निमित्त से उपादान का कार्य नहीं होता।' सीताजी के पूर्व पुण्य के कारण अग्नि से जल हुआ था - ऐसा नहीं है। तथापि निमित्त-नैमित्तिक का मेल बताने के लिए शास्त्रों में ऐसा कथन आता है। वह तो कुदरती वैसा ही बनने का योग था, अतः अग्नि पानीरूप हो गयी थी, किन्तु भक्तिवश विनयभावना से स्तुति में ऐसा कहते हैं कि हे नाथ! जो तेरी शरण में है, उसे क्या चिन्ता? काव्य ४० कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पं दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिंगम्। विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम् ।।४० ।। हिन्दी काव्य प्रलय-पवनकर उठी आग जो तास पटन्तर । बमैं फुलिंग शिखा उतंग पर जलैं निरन्तर ।। जगत समस्त निगल्ल भस्मकर देगी मानो। तड़तड़ाट दव-अनल जोर चहँ दिशा उठानो।। सो इक छिन में उपशमें, नाम-नीर तुम लेत। होय सरोवर परिनमै, विकसित कमल समेत ।।४० ।। अन्वयार्थ - (त्वत् नाम-कीर्तन-जलम्) आपके नाम के स्मरणरूपी जल से (कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पम्) प्रलयकाल की महावायु के तेज झकोरों से उत्तेजित हुई - धधकती हुई प्रचण्ड आग के समान (ज्वलितम्) जलती हुई (उज्ज्वलम्) निर्धूम (उत्स्फुलिंगम्) चारों ओर फेंकती हुई चिन्गारियों से युक्त (विश्वम्) संसार को (जिघत्सुम् इव) मानो निगल लेगी, इसतरह (सन्मुखं आपतन्तम्) सम्मुख आती हुई (दावानलम्) दावानल को (अवशेष शमयति) पूरी तरह से शान्त कर देता है। अर्थात् प्रलयकाल की तरह भयंकर आग को भी शमन करने के लिए आपका नाम स्मरण जल के समान है। काव्य ३५पर प्रवचन इस काव्य में आचार्य कहते हैं कि भगवान के भक्त को बाह्य-आभ्यंतर अग्नि का भय नहीं होता। भगवान के नाम-कीर्तन की महिमा व्यक्त करते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि हे नाथ ! आपके पवित्र नाम का कीर्तनरूप जल तन चेतन विवहार एक से, निहचै भिन्न भिन्न हैं दोइ। तन की थुति विवहार जीव थुति, नियत दृष्टि मिथ्या थुति सोइ ।। जिन सो जीव जीव सो जिनवर, तन जिन एक न मानै कोई। ता कारन तन की संस्तुति सौं, जिनवर की संस्तुति नहिं होइ ।।३०।। - कविवर बनारसीदासजी : समयसार नाटक, जीवद्वार
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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