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________________ काव्य २९ सिंहासने मणि- मयूख-शिखा - विचित्रे विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् । बिम्बं वियद्विलसदंशुलता-वितानं तुङ्गोदयाद्रि शिरसीव सहस्र - रश्मेः ।। २९ ।। हिन्दी काव्य सिंहासन मनि- किरन - विचित्र, तापर कंचन वरन पवित्र । तुम तन शोभित किरन - विधार, ज्यों उदयाचल रवि तमहार ।। २९ ।। अन्वयार्थ - (मणि मयूख शिखा विचित्रे सिंहासने ) मणियों की किरणों के अग्रभाग से विविध रंगवाले चित्र-विचित्र सिंहासन पर (कनक अवदातम् ) स्वर्ण जैसा सुन्दर (तव वपुः) आपकी दिव्य देह या सुन्दर शरीर (तुङ्ग उदयाद्रि शिरसि) उन्नत उदयाचल के शिखर पर ( वियत् विलसत् अंशु लता - वितानम्) जिसकी किरणों का वल्लरि-विस्तार आकाश में शोभायमान हो रहा है - ऐसे (सहस्र - रश्मेः ) सूर्य के (बिम्बं इव विभ्राजते) बिम्ब के समान सुशोभित हो रहा है। [इस काव्य में द्वितीय प्रातिहार्य ( सिंहासन) का वर्णन है । ] काव्य २९ पर प्रवचन अब सिंहासन की शोभा बताते हैं । समवशरण में रत्नमय सिंहासन पर कमल की आकृति रहती है और तीर्थंकर भगवान उस कमल से भी चार अंगुल निराधार विराजमान होते हैं। उनके लिए जमीन या साधारण पाट पर बैठने की किंवदन्ती प्रामाणिक नहीं है। सामान्य केवली भी जमीन पर नहीं बैठते हैं। श्वेताम्बर शास्त्रों में कथन आता है कि जब केवलज्ञानी मोक्ष में जाने की तैयारी में हों - तब वे संघ को पाट आदि वापस सौंपते हैं, किन्तु यह बात यथार्थ नहीं है। पुण्यहीन को सामग्री जुटानी पड़ती है। भगवान पुण्यहीन नहीं हैं। भगवान के पुण्ययोग से सिंहासनादि सहज सुलभ होते हैं। जैसे- जब अनाज की फसल अच्छी हो, तब डंठल भी ऊँची जाति का होता है। जिस अनाज में उच्चकोटि काव्य - २९ १०९ का रस हो, तब डंठल में भी वैसा ही रस होता है; वैसे ही जब आत्मा की पूर्ण पवित्रता प्रकट होती है, तब पूर्वकालीन पुण्योदय से उनका शरीर और सिंहासन आदि भी भिन्न जाति के होते हैं। जब पवित्रता प्रकट होती है - तब पुण्य कैसा होता है? यह वर्णन वीतराग की महिमा बताने के लिए किया गया है। इसके आगे की बात यह है कि जो तत्त्वदृष्टिपूर्वक आपको भजता है, वह आप जैसा हो जाता है। पारसमणि और संत में, बड़ो आंतरो जान । एक लोहा कंचन करे, दूजो करे आप समान ।। जिस लोहे में जंग लगी हुई हो, वह लोहा पारस के स्पर्श से सोना नहीं बनाया जा सकता; किन्तु आपके निमित्त से हम रागी-द्वेषी भी आपके समान हो ही जायेंगे। यह निसंदेह पूर्ण सत्य है । ‘णमो अरहंताणं' पद में तीर्थंकर मुख्य है। जैसे - सूर्य पर्वत पर सुशोभित होता है, वैसे ही आप सिंहासन पर सुशोभित होते हैं। व्यवहार में भगवान निमित्त रूप से कैसे होते हैं? यह प्रसंग चल रहा है। भगवान के रोग या उपसर्ग नहीं होते। जिसे दवा लेनी पड़े या आहार -पानी लेना पड़े, वह भगवान नहीं है। चौंसठ युगलदेव भगवान को चँवर ढोरते हैं, यह सब तीर्थंकर के पूर्वकृत पुण्य परिणाम का फल है। भगवान के अनन्त आनन्द प्रकट हुआ है, वे उस अतीन्द्रिय आनन्द का परिपूर्ण अनुभव करते हैं। आपके लेशमात्र भी इच्छा, राग-द्वेष नहीं हैं। आप जहाँ विराजते हैं, वहाँ देव चँवर ढोरते हैं। आत्मा की अमूल्य सम्पदा की तुलना में इस बाह्य सम्पदा की कोई कीमत नहीं है । अज्ञानी को पवित्रता एवं पुण्य का भान नहीं है, वह तो केवल पुण्य की ही प्रशंसा करता है। बेला के पुष्प बहुत उज्ज्वल होते हैं, किन्तु आपके चँवर उनसे भी अधिक सफेद होते हैं। तीर्थंकर भगवान का परिचय कराने के लिए व्यवहार में यह सब कुछ बताया जाता है; परन्तु सर्वज्ञ वीतरागदेव का यथार्थ स्वरूप जाने बिना आत्मा नहीं जाना जा सकता। जो आत्मा को जाने, वह सच्चे देव को जानता है। सम्यग्दृष्टि का शुभराग भी पुण्य है- धर्म नहीं है। भगवान अविकारी अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव कर रहे हैं ऐसे परमात्मा का यहाँ वर्णन किया जाता है।
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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