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________________ काव्य २८ उच्चैरशोक - तरु- संश्रितमुन्मयूख माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् । स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त-तमो-वितानं बिम्बं रवेरिव पयोधर - पार्श्ववर्ति ।। २८ ।। हिन्दी काव्य तरु अशोक - तर किरन उदार, तुम तन शोभित है अविकार । मेघ निकट ज्यों तेज फुरंत, दिनकर दिपै तिमिर निहनंत ।। २८ ।। अन्वयार्थ - ( उच्चैः अशोकतरुः संश्रितम् ) अति उन्नत खूब अशोक वृक्ष के आश्रय में विराजमान (उन्मयूखम् ) ऊपर की ओर अपनी किरणों को बिखेरता हुआ भवतः अमलं-रूपम्) आपका उज्ज्वल रूप (स्पष्ट उल्लसत् किरणम्) स्पष्ट रूप से ऊपर की ओर चमकती दमकती हुई दीप्तमान किरणोंवाला है, (अस्त तमो - वितानम् ) तथा समस्त अन्धकार समूह को अस्त करनेवाला है। (पयोधर पार्श्ववर्ति रवेः विम्बं इव) एवं सघन बादलों के समीप रहनेवाले सूर्यबिम्ब के समान ( नितान्तम् आभाति) अत्यधिक शोभायमान होता है। (इस काव्य में अशोकवृक्ष के तल में स्थित तीर्थंकर भगवान के प्रथम प्रातिहार्य का वर्णन आलंकारिक शैली में किया गया है।) काव्य २८ पर प्रवचन हे निर्मल अतिशयरूप प्रभो ! ऊँचे और हरे अशोक वृक्ष के नीचे आपका सम्पूर्ण उज्ज्वल रूप ऐसा सुन्दर दिखता है मानो काले-काले मेघों के नीचे पीतवर्ण सूर्यमण्डल ही हो तथा सूर्यमण्डल की तरह ही आप जगत के अज्ञान रूपी अंधकार का नाश करते हैं। धर्मी जीवों को आत्मा का भान है। आत्मा ज्ञानादि अनंत शक्तियों का धाम है। आपने उस ज्ञान कोष को खोलने की चाबी सबको बता दी है, कुछ भी छिपाकर नहीं रखा। आपने बताया कि प्रत्ये आत्मा शक्ति रूप से परमात्मा है। आपने आत्मा को जानकर उसके द्रव्य स्वभाव की रुचि एवं लीनता रूप मोक्ष-मार्ग बताकर भव्यजीवों को कृतार्थ कर काव्य - २८ १०७ दिया तो फिर पुण्य से धर्म होने की बात कौन करे? केवलज्ञानी भगवान के समवशरण में अशोक वृक्ष है, वह भगवान के शरीर से १२ गुना अधिक ऊँचा होता है, उसके नीचे भगवान होते हैं। तीर्थंकर भगवान किसी के घर में, दुकान में या यक्ष मन्दिर में नहीं रहते। केवलज्ञानी का शरीर स्फटिक जैसा परम औदारिक शरीर हो जाता है। समवशरण में जाकर उनके शरीर को देखनेवाले को सात भव का ज्ञान हो जाता है। इसप्रकार हे मुनिनाथ! आप बाह्य एवं अभ्यन्तर शोभा में उत्कृष्ट हैं। हे भगवन् ! आप समवशरण में अशोकवृक्ष के नीचे स्वर्णिम सिंहासन पर चार अंगुल ऊँचे बिना किसी आधार विराजते हैं। आपके शरीर की दिव्य उज्ज्वलता सूर्य के समान सुशोभित होती है, आपका रूप अतुलनीय है। जैसे सूर्य काले बादलों में सुशोभित होता है, वैसे आप सुशोभित होते हैं । वर्तमान में समवशरण देखने का योग नहीं है। पुण्यशाली ही समवशरण का दर्शन करते हैं। सुगन्धित पदार्थ और कस्तूरी बोरी में नहीं रखी जाती, सुन्दर एवं मजबूत बक्सों में ही रखी जाती है; उसीप्रकार आपके परमात्म-शक्ति पूर्ण प्रकट होने से आपका पुण्य भी उच्चकोटि का होता है, तत्परिणाम स्वरूप आपका शरीर भी सुन्दर एवं मजबूत होता है। केवलज्ञान प्रकट हो जाने के बाद आपका शरीर जमीन से पाँच हजार धनुष ऊँचा अशोक वृक्ष के नीचे होता है । केवलज्ञानी पृथ्वी पर नहीं चलता । जो उन्हें पृथ्वी पर चलनेवाला माने, उसे १३ वें गुणस्थान के निश्चय - व्यवहार की स्थिति का ज्ञान नहीं है। भगवान हाथी, घोड़ा, पालकी आदि वाहनों पर नहीं बैठते । श्री मानतुङ्ग आचार्य कहते हैं कि हे नाथ! आप अशोक वृक्ष के नीचे सुशोभित होते हैं। जीवनमुक्त भगवान बाह्य और अन्तर की शोभा में कैसे उत्कृष्ट होते हैं, इसका वर्णन किया जा रहा है। इस उत्कृष्ट पवित्रता एवं पुण्य में न्यूनतावाला व्यक्ति तीर्थंकर नहीं कहलाता । इसप्रकार अशोक वृक्ष के बहाने तीर्थंकर भगवान की महिमा का वर्णन किया गया है। आचार्य देव ऐसे भगवान के स्वरूप को जाननेवालों को आत्मा की प्रभुता का परिज्ञान कराते हैं कि हे भाई! चैतन्य प्रभु की समस्त शक्ति की पूर्णता और पुण्य की योग्यता निराली जाति की है, इसलिए परमात्मा का आदर करो।
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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