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________________ भक्तामर प्रवचन ११० ___कोई कोहिनूर हीरा देखने गया, उसने उसकी महिमा का बखान करनेवाले से पूछा- "हीरा की कीमत अधिक या नेत्र की?" जैसे नेत्रहीन को हीरा की कीमत समझ में नहीं आती, वैसे ही सम्यग्ज्ञान रूपी नेत्र बिना सर्वज्ञ की वाणी बोधगम्य नहीं होती। एक अन्धे को दूध पीने के लिए कहा, उसने पूछा कि दूध कैसा होता है? उसने रंग में उत्तर दिया कि बगुले जैसा । उसने फिर प्रश्न किया कि बगुला कैसा होता है? उसने इस प्रश्न का उत्तर आकृति में देते हुए हाथ की टेढ़ी आकृति बनाकर बताई। तब अंधे आदमी ने कहा - "भाई साहब! ऐसे बगुले जैसा दूध तो मेरे गले में नहीं उतरेगा, किन्तु अन्धा इस तथ्य को नहीं जानता है कि जो आकार है, वह रंग नहीं है। उसीप्रकार जो सर्वज्ञ वीतराग के पूर्ण स्वरूप को नहीं जानता, वह तीर्थंकर के पुण्य को भी नहीं जान सकता; इसलिए वह अन्धे मनुष्य की तरह है। ___ लोगों ने आत्मा और पवित्रता की बात ही नहीं सुनी है। भगवान के उत्कृष्ट पुण्य में आत्मा की पवित्रता निमित्त होती है। हे नाथ! आपका शरीर सुन्दर होता है। जब उनके चँवर किये जाते हैं, तब ऐसा लगता है कि मानो पर्वत में से उज्जवल जल की धारा बहती हो । मानस्तम्भ पर २५० मन का पत्थर चढ़ाने का विश्वास साधारण आदमी नहीं कर पाता । जहाँ पवित्रता और पुण्य की पूर्णता हो, वहाँ कुछ भी आश्चर्यकारी नहीं है। अज्ञानी को इसमें आश्चर्य होता है। देवता चँवर ढुराते हैं, यह पुण्य का वर्णन है। इस वर्णन से उनकी पवित्रता कैसी थी, इसका भान होता है। धर्मी कहता है कि मुझे निमित्त-राग-द्वेष का माहात्म्य नहीं है; किन्तु निर्मल स्वभाव का माहात्म्य है। इसप्रकार भगवान की स्तुति में निश्चय से अपने आत्मा की स्तुति है। काव्य ३० कुन्दावदात-चल-चामर-चारु-शोभं विभ्राजते तव वपुः कलधौत-कान्तम् । उद्यच्छशांक-शुचिनिझर-वारि-धार मुच्चस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ।।३०।। हिन्दी काव्य कुन्द-पुहप-सित-चमर ढुरंत, कनक-वरन तुम तन शोभंत । ज्यों सुमेरु-तट निर्मल कांति, झरना झरै नीर उमगांति ।।३०।। अन्वयार्थ-(कुन्द अवदात-चलचामर-चारु-शोभम) कुन्द नामक सुमन के समान शुभ धवल, ढुरते हुए चँवरों से वृद्धिंगत हुई है शोभा जिसकी तथा (कलधौत-कान्तम्) स्वर्ण के समान है कान्ति जिसकी - ऐसा आपका शरीर (उद्यत् शशाङ्कशुचिनिर्झर-वारि-धारम्) उदीयमान चन्द्रमा के समानधवल-उज्वल-श्वेत-शुभ्र जलप्रपात की धारा जहाँ गिर रही है - ऐसे निर्झर युक्त (सुरगिरेः) सुमेरुपर्वत के (शातकौम्भम्) स्वर्णिम (उच्चैः तटम् इव विभ्राजते) उन्नत तटों के समान शोभा देता है। अर्थात् समवशरण में यक्षेन्द्रों द्वारा जब एक साथ चौसठ जूवर आपके ऊपर ढोरे जाते हैं, तब उनकी उज्ज्वल कान्ति से आपके सौम्य सुन्दर शरीर की शोभा और भी अधिक बढ़ जाती है। स्वर्णिम कान्ति युक्त आपकी दिव्य देह कुन्दपुष्प के समान धवल और चलायमान-ठुरते हुए बँवरों के बीच में ऐसी लगती है कि जैसे सुमेरु पर्वत के उन्नत तट पर गिरता हआ झरना हो। उस झरने की निर्मल धारा उगते हए चन्द्रमा के समान शुभ्र है। काव्य ३०पर प्रवचन आदीश्वर भगवान वर्तमान चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर हुए हैं। इस काव्य में उनके सुन्दर शरीर का वर्णन अलंकारिक शैली में किया है। यद्यपि तीर्थंकर का शरीर अति सुन्दर होता है, किन्तु आत्मा की पवित्रता के आगे यह सुन्दरता भी सामान्य है। आत्मा पूर्ण ज्ञानस्वभावी है, ऐसी श्रद्धा हो जाने पर शुभराग से ऐसे बहुगुण विज्जाणिलयो, उस्सूत्तभासी तहा विमुत्तव्यो। जह वरमणिजुत्तो विहुवि, विग्घयरी विसधरो लोये।। जिनवाणी से विरुद्ध (उल्लंघन करके) उपदेश देनेवाला पुरुष भले ही क्षमादिक बहुत से गुणों और व्याकरणादि अनेक विद्याओं का स्थान हो, तो भी वह उसीप्रकार त्याग देने योग्य है - जिसप्रकार लोक में श्रेष्ठ मणि सहित भी विषधर सर्प विघ्नकारी होने से त्याज्य ही होता है। - उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला, श्लोक १८
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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