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________________ ९२ भक्तामर प्रवचन आचार्य श्री मानतुङ्ग ने यहाँ इस काव्य में सत्य को प्रकट किया है। वे कहते हैं - कि आप परमपुरुष हैं; क्योंकि आपने परमपुरुषार्थ द्वारा कृत-कृत्य होकर आत्मा का उपदेश दिया है। जो आपके अभिप्रायानुसार परमपद का ध्यान करता है, उसके जन्म-मरण नहीं होता। जिस भाव के करने से जन्म हो, उसी भाव के करने से जन्म-मरण दूर नहीं हो सकता, यानि उसका पुनः जन्ममरण अवश्य होता है। पुण्य-पाप दोनों संसार के कारण हैं, पुण्य से लाभ माननेवाला आप (भगवान) से दूर रहता है। जिसे निर्मल परमात्मा की शक्ति का आदर नहीं है, वह विकार का आदर करता है, इसलिये उसकी मुक्ति नहीं होती । हे भगवन् ! आपकी आत्मा में ज्ञान, दर्शन, आनन्द, वीर्य आदि सर्व शक्तियों का विकास एक साथ हो गया है, इसीप्रकार प्रत्येक आत्मा में सर्वज्ञशक्ति सर्वदर्शित्व शक्ति, अकारणकार्य शक्ति आदि अनन्त शक्तियाँ हैं। उन सबका आधार एक अपना आत्मा ही है, अतः इसी का भान व श्रद्धान कर ! जिन्होंने अपने आत्मीय गुणों की पूर्ण दशा प्रकट की है - वे ही अरहंत परमात्मा हैं। उनका नाम स्मरण करनेवाला भी कालान्तर में अपने को पहचान लेता है, आत्म भान कर लेता है। आत्मा के भान-श्रद्धान बिना कोई सुखी नहीं हो सकता। यदि सुखी होना हो तो अपने आत्मा और सच्चे परमात्मा की पहिचान करना चाहिए। सम्यग्दर्शन होने पर सम्यग्दर्शन होने पर धर्मी को सिद्ध समान अपना शुद्ध आत्मा श्रद्धा, ज्ञान एवं स्वानुभव में स्पष्ट आ जाता है; उसकी गति परिणति विभावों से विमुख होकर सिद्धपद की ओर चलने लगती है, वह मोक्षमार्गी है। पश्चात् ज्यों-ज्यों स्थिरता और शुद्धता बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों श्रावकधर्म और मुनिधर्म प्रगट होता जाता है। श्रावकपना तथा मुनिपना तो आत्मा की शुद्धदशा में रहते हैं, वे कोई बाहर की वस्तु नहीं हैं। जैनधर्म में तीर्थंकरदेव ने मोक्षमार्ग कैसा कहा है, उसकी खबर न हो और विपरीतमार्ग में जहाँ-तहाँ मस्तक झुकाता हो ऐसे जीव को जैनत्व नहीं होता। जो जैन हुआ, वह जिनवरदेव के मार्ग के सिवाय अन्य को स्वप्न में भी नहीं मानता। - आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजीस्वामी : श्रावक धर्मप्रकाश, पृष्ठ ५४ ..................... काव्य २४ त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यं ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनङ्गकेतुम् । योगीश्वरं विदित-योगमनेकमेकं ज्ञान - स्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ।। २४ ।। हिन्दी काव्य अनन्त नित्य चित्त की अगम्य रम्य आदि हो । असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो ।। महेश कामकेतु योग ईश योग ज्ञान हो । अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो ।। २४ ।। अन्वयार्थ - हे प्रभु! (सन्तः ) सन्तजन, सज्जनपुरुष ( त्वाम् ) आपको (अव्ययम्) अव्यय अक्षय (विभुम् ) व्यापक, उत्कृष्ट विभूति से सुशोभित (अचिन्त्यम्) अचिन्त्य, मन के अगोचर (असंख्यम्) गणनातीत (आद्यम्) आदितीर्थंकर (ब्रह्माणम्) आत्मलीन, सकल कर्मरहित सिद्ध परमेष्ठी या शुद्धात्मन् (ईश्वरम्) सर्वशक्ति सम्पन्न (अनन्तम्) अनन्तगुण संयुक्त, अनन्त चतुष्टयधारक (अनङ्गकेतुम् ) काम के लिए केतुवत् कामजयी या अशरीरी ( योगीश्वरम् ) मुनिनायक (विदितयोगम्) योगवेत्ता, रत्नत्रयरूप योग के ज्ञाता (अनेकम् ) अनन्तगुणधारक, सहस्रनामों से स्तुति योग्य (एकम् ) अद्वितीय (ज्ञानस्वरूपम्) ज्ञानमूर्ति, केवलज्ञान स्वरूपी (अमलम्) कर्ममल रहित त्रिकालशुद्धस्वभावी आदि अनेक नामों से (प्रवदन्ति) सम्बोधित करते हैं, स्मरण करते हैं। काव्य २४ पर प्रवचन हे सर्वज्ञ देव ! सन्तजन आपका अव्यय (अक्षय), विभु, अचिन्त्य,
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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