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________________ ९४ भक्तामर प्रवचन काव्य-२४ असंख्य, आदिपुरुष, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनङ्गकेतु, योगीश्वर, विदितयोग, एक, अनेक, ज्ञान-स्वरूप, अमल आदि विशेषणों से वर्णन करते हैं। (१) अव्यय (अक्षय, अविनाशी):- सज्जन-पुरुष, सम्यग्ज्ञानी संत जो आपको जानते हैं, वे आपको अव्यय (अमर) कहते हैं; क्योंकि आपका जो स्वरूप पूर्ण रूप से प्रकट हुआ है, उसका कभी नाश नहीं होता। संसार में लौकिक जन स्वर्ग के देवताओं को 'अमर' कहते हैं, किन्तु यह कथन मनुष्यतिर्यंचों की अपेक्षा उनकी अधिक आयु होने के कारण है, अन्यथा वे देवता भी आयु पूर्ण होने पर मरते ही हैं। किन्तु हे भगवन् ! आप मोक्ष जाने के बाद फिर कभी कहीं जन्म नहीं लेते । जैसे - मक्खन से घी बनाया जाता है, किन्तु उस घी से फिर मक्खन नहीं बनाया जा सकता; वैसे ही परमात्मा का फिर जन्म नहीं होता। अपूर्ण दशा में अल्प पुरुषार्थी को भी राग के प्रति आदर भाव नहीं होता तो पूर्ण दशा होने के बाद आपको राग भाव आये, यह संभव नहीं है; अतः आप अविनाशी ही हैं। (२) विभु :- आपका ज्ञान समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को जानता है; अतः आप विभु' हैं अथवा आपके अपने असंख्य प्रदेशों में आपके गुण और उनमें आपकी आत्मा व्यापक है, इसलिए आप विभु हैं। क्या आप आत्मा की आदि (प्रारम्भ) नहीं जानते? और नहीं जानते हैं तो क्या आपका ज्ञान अपूर्ण है? नहीं; क्योंकि वस्तु ही अनादिकाल से सत् है, आप उसे उसी रूप में जानते हैं। जो ज्ञान अनादिस्वरूप वस्तु को आदि स्वरूप जाने तो वह ज्ञान विपरीत है। जो अनादि एवं अनन्त को अनादि-अनन्त रूप ही जानता है, वही सच्चा ज्ञान है। आत्मा-परमात्मा अनादिकाल से है, वस्तु नई नहीं होती, हाँ उनकी पर्याय बनती बिगड़ती रहती है; किन्तु हे भगवन् ! आपने समस्त पदार्थों की तीनों कालों की पर्यायों को जान लिया है। आपके ज्ञान में कुछ भी अज्ञेय नहीं है। अज्ञानी शंका करता है - “यदि भगवान के सर्वज्ञता (केवलज्ञान) है तो मेरी प्रथम व अंतिम पर्याय कौन-सी है? इसका समाधान यही है कि जो वस्तु है, उसका प्रारम्भ किस दिन से हुआ, यह प्रश्न ही नहीं बनता। जो है, उसका प्रारम्भ एवं नाश कैसा? जो है, वह अपने स्वरूप की सत्ता छोड़े बिना मात्र पर्याय बदलता रहता है। अनादिकाल से प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय एवं ध्रुवरूप है। प्रत्येक वस्तु नित्य एवं अनित्य है। वह द्रव्यदृष्टि से नित्य एवं पर्यायदृष्टि से अनित्य है। (३) अचिन्त्य :- आप मन की कल्पना या शुभाशुभ के विकल्प द्वारा जाने जा सकें - ऐसा आपका स्वरूप नहीं है। आत्मा मन, वचन और काय के राग के आलंबन द्वारा नहीं जाना जा सकता। वह शुभराग रूप व्यवहार से भी ग्रहण नहीं किया जा सकता। आत्मा का स्वरूप पूर्णज्ञान घन है, अतः वह स्वसंवेदन ज्ञान से ही जाना जा सकता है। आत्मा स्वानुभव से स्व-प्रकाशक ज्ञान प्राप्त करे, तभी वह अपना स्वरूप जानता है। राग, रूप, भक्ति या चिन्तवन द्वारा स्वभाव का चिन्तवन नहीं हो सकता, इसलिए आप अचिन्त्य हैं। (४) असंख्य :- हे भगवन् ! आप तीनकाल और तीनलोक को जानते हैं, आपका ज्ञान संख्या की सीमा में सीमित नहीं है; आप पर्यायों को अनन्त रूप ही जानते हैं, इसलिए उनकी संख्या नहीं है; अतः आप असंख्य हैं। (५) आदिपुरुष :- हे आदिनाथ! आपने इस अवसर्पिणी काल में धर्मकाल रूप युग (काल) के प्रारम्भ में जन्म लिया। आपने योगभूमि के काल के बाद धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया; इसलिए आप धर्मयुग के आदिपुरुष हैं। (६) ब्रह्मा :- हे भगवन्! आपने पूर्ण आनन्द प्राप्त किया; इसलिए आप ब्रह्मा हैं। जिसके राग-द्वेष-मोह आदि रहे और जो स्त्री आदि के राग से विचलित हो जाये, वह ब्रह्मा नहीं है। आप ब्रह्मा अवश्य हैं; किन्तु किसी के द्रव्य-गुणपर्याय के रचियता नहीं हैं।
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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