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________________ भक्तामर प्रवचन ८२ ही सर्वज्ञ होता है और उसी के जन्म, जरा, भूख, प्यास, विस्मय, अरति, खेद, राग, द्वेष, मूर्छा, निद्रा, घमण्ड, मोह, पसीना, रोग, मरण एवं भय नामक अठारह दोष नहीं होते हैं। जो एक समय में उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वरूप तीन लोक, तीन काल के समस्त द्रव्य व उनके भावों को जान ले, वह केवलज्ञानी है। उसका दिव्यज्ञान एवं दिव्यवाणी अलौकिक है, उनका शरीर भी अलौकिक हैऐसा अन्य छद्यस्थ जीवों के नहीं होता । दुनियाँ कहती है कि भगवान ने जगत् की रचना की, किन्तु उसे त्रिकाल व त्रिलोक का ज्ञान था या नहीं ? यदि उसके ज्ञान में वस्तु पहले से मौजूद थी तो उसने किसकी रचना की ? यदि वस्तु मौजूद नहीं थी तो वह किसका ज्ञाता था ? यदि उसने वस्तु को बनाकर बाद में उसे जाना तो उस भगवान को केवलज्ञानी मानने में बाधा आती है । अत: मैंने सर्वज्ञ वीतराग भगवान की भलीप्रकार युक्ति व न्याय से परीक्षा करके कुदेवादि को एवं लौकिकजनों के द्वारा मान्य हरि-हरादि को भी अच्छी तरह जानकर निर्णय किया है, अतः अब मेरा मन अन्यत्र नहीं ठहरता है। जैन परमेश्वर की महानता यह है कि वे लोक में अनन्त आत्माओं का अस्तित्व मानते हैं। वे प्रत्येक आत्मा को परिपूर्ण होने योग्य बताते हैं । अन्य मतों में कथा आती है कि यहाँ दान करो तो वैकुण्ठलोक में भगवान के पास जाओगे, वहाँ भोजन के लिए षट्स से परिपूर्ण व्यंजन मिलेंगे; किन्तु यह सब काम, भोग, बंधन की ही कथा है। जबकि जैन शास्त्र में मुक्तदशा की बात है। जिसने पूर्ण ज्ञानदशा प्रगट की और सबकी स्वतंत्रता उद्घोषित की कि सब आत्मायें परिपूर्ण हैं । प्रत्येक जीव में परिपूर्ण शक्ति है। यद्यपि वर्तमान भूमिकानुसार भक्ति का राग एवं पुण्य का भाव होता है, किन्तु वह धर्म नहीं है। हे नाथ ! आप ही सर्वज्ञ वीतराग हैं - यह मैंने भलीप्रकार जान लिया है। अतः मुझे व्यवहार से आपमें एवं निश्चय से अपने में ही पूर्ण सन्तोष है, इसलिए मेरा मन अन्यत्र कहीं भी नहीं ठहरता । इसलिए मेरा संसार अब अधिक नहीं है। मुझे अन्य किसी की महिमा नहीं है, मेरा आपके सिवाय अन्य स्वरूप वाले किसी भी देव पर लक्ष्य नहीं जाता। काव्य २१ ८३ अब हमें आपकी दिव्यशक्ति का दिव्य प्रकाश मिल जाने के बाद एक भव या दो हों तो हों; अधिक काल संसार में नहीं रहना है। हमें अब अन्य देवगुरु-शास्त्र को वन्दन करना नहीं सुहाता । हे नाथ ! मैंने अपूर्व दृष्टि से आपको देखा और सुना, आपने ही पूर्णता की बात की है कि हमारे में परिपूर्ण शक्ति है। मैं अब उस पूर्ण प्रच्छन्न शक्ति को पर्याय में प्रगट करूँगा । अब अपूर्ण एवं आपके विरुद्ध वार्ता बताने वालों के प्रति मेरी श्रद्धा नहीं है। हे नाथ ! आपने मेरे मन पर कोई अद्भुत जादू कर दिया है। अब मैं किसी भी समय राग, पुण्य या निमित्तादि में सन्तोष मानकर नहीं अटकूँगा और कुदेवकुगुरु-कुशास्त्र का संस्कार नहीं आने दूंगा और अप्रतिहत भाव से अल्पकाल में केवलज्ञान प्राप्त कर आप जैसा बनूँगा - ऐसा मेरा दृढ़ संकल्प है। भगवान आत्मा की लगन जैसे चित्तौड़ के राणा के साथ मीराबाई की शादी हुई; परंतु साधुओं के सत्संग करने से उसे वैराग्य हो गया और वह वैरागिन होकर वहीं रहने लगी। राणा ने मीरा के | पास संदेश भेजा - "मीरा! तुम घर आ जाओ, मैं तुम्हें पटरानी बनाऊँगा।" लेकिन मीरा को तो ईश्वर की लॉ लग गई थी, अतः उसने राणा को जवाब में कहा "मैंने तो मेरे नाथ (ईश्वर) के साथ लग्न कर ली है, लॉ लगा ली है। इसलिए | अब मेरा दूसरा पति नहीं हो सकता।" इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि धर्मीजीव की परिणति अंदर राग से भिन्न होकर शुद्ध चैतन्य के साथ जुड़ गई है। इससे वह कहता है कि मेरी निर्मल चैतन्य परिणति का मैं ही स्वामी हूँ, राग का नहीं; और राग मेरा स्वामी नहीं। शुभाशुभभाव होते हैं, किन्तु वह आत्मा का विकार है। मैं उनका संग नहीं करूँगा। अहा हा! मैं तो नित्यानंदस्वरूप चैतन्यमूर्ति ज्ञायकबिंब प्रभु हूँ। इसप्रकार चैतन्यस्वरूप निज चिदानंद भगवान आत्मा की जिनको लगन लगी है ऐसे धर्मी जीव निर्मल ज्ञान व आनंद की परिणति के कर्ता हैं, किंतु राग के कर्ता नहीं हैं। जहाँ राग का भी कर्ता जीव नहीं है, वहाँ पर के कर्ता होने की बात ही कहाँ रही ? - आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी प्रवचन रत्नाकर, भाग: ४ (गाथा १०४ की टीका के प्रवचन से)
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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