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________________ काव्य २२ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान् नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता। सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मि प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ।।२२।। हिन्दी काव्य अनेक पुत्रवंतिनी नितंबिनी सपूत हैं। न तो समान पुत्र और माततै प्रसूत है ।। दिशा धरत तारिका अनेक कोटि को गिनै। दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै ।।२२।। अन्वयार्थ - (स्त्रीणां शतानि) सैकड़ों स्त्रियाँ (शतशः पुत्रान् जनयन्ति) सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं। [ किन्तु ] (अन्या जननी) आपकी माता के अतिरिक्त दूसरी मातायें (त्वत् उपमम्) आपके समान (सुतं न प्रसूता) पुत्र को उत्पन्न नहीं कर सकीं, नहीं जन सकीं। [ यथा ] जैसे (सर्वाः दिशः भानि दधति) सभी दिशायें नक्षत्रों-ताराओं को धारण करती हैं [ किन्तु ] (प्राची एव दिक) केवल पूर्व दिशा ही (स्फुरत् अंशुजालं सहस्ररश्मिं जनयति) स्फुरायमान किरणों के समूहवाले सूर्य या दिनकर को जन्म देती है, उदित करती है; अन्य नहीं। काव्य २२ पर प्रवचन इस जगत में अनेक स्त्रियाँ अनेक बच्चों को जन्म देती हैं, किन्तु भगवन् ! आपकी माता ऐसी अनुपम है कि उसने आप जैसे तीनलोक में उत्कृष्ट पुरुष को ही जन्म दिया है। अतः स्वर्गलोक का स्वामी इन्द्र भी उस माता की स्तुति करता है। वह कहता है कि - 'तीर्थंकर जैसे पुत्ररत्न को धारण करनेवाली माता धन्य है, उनको हमारा नमस्कार है। तीनज्ञान के धारक तीर्थंकर माँ के गर्भ में आते हैं, इसलिए इन्द्रों ने 'रत्नधारिणी' कहकर उस माता का अभिवादन किया है। काव्य-२२ जगत में सैकड़ों मातायें सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं; परन्तु हे नाथ! इस जगत में आप जैसे अद्वितीय पुत्र को उत्पन्न करनेवाली आपकी माता अनन्य हैं। अन्य मातायें आप जैसे पुत्र को उत्पन्न करनेवाली दृष्टिगोचर ही नहीं हुई। आपकी माता ने केवल आपको ही जन्म दिया है। आप अनुपम-आनन्द और शान्ति के सागर हैं। आपने पूर्ण पवित्रता एवं पूर्ण शान्ति प्राप्त की तथा आत्मा के लक्ष्य से दिव्यज्ञान की प्राप्ति की है। आप जैसे वीर पुत्र को जन्म देकर अपनी फॅख को सफल किया है। लोक में भी यह कहा जाता है कि : जननी जण तो भक्त जण, या दाता या शूर । नहीं तो रहजे बाँझड़ी, मत गुमाजे नूर ।। हे माँ ! तू कायर बालक को जन्म देकर अपने यौवन के तेज को बरबाद मत करना । तू परमानन्द स्वरूप आत्मा की भक्ति करनेवाले बालक को जन्म देना । अबतक तूने पुण्य से प्रेम करनेवाले बालक अनन्त बार पैदा किये। आत्मा परिपूर्ण सच्चिदानन्द स्वरूप है, उसका आश्रय लेने में ही हित है, इसलिए तू भी इसी का आदर करना और ऐसे ही पुत्र को पैदा करना। पुण्य-पाप आदर करने योग्य नहीं हैं, इसलिए हे माँ ! तू भी ऐसे सपूत को जन्म देना, जो विकार का आदर नहीं करे, मिथ्या मान्यता का आदर नहीं करे । पवित्रता का आदर करनेवाले इन्द्र ऐसा कहते हैं कि हे माँ, आप ऐसे अविनाशी स्वरूप की श्रद्धा. ज्ञान और उसी में स्थिर होनेवाले तथा आनन्द को उत्पन्न करनेवाले पुत्र को जन्म देना। लोक में धनादि के दान देनेवाले अनेक हैं, उनकी चर्चा यहाँ अभीप्सित नहीं है। आत्मा के अखण्ड, शुद्धज्ञान, आनन्दमय स्वरूप का यथार्थ भान करके अन्तरंग शक्ति में से शुद्धता का आदान-प्रदान करनेवाला स्वयं आत्मा ही हैऐसे दातार आत्मा की ही महिमा ज्ञानी को होती है। वीर वह है, जो अपने स्वसामर्थ्य की रचनारूप आत्म-बल स्ववीर्य द्वारा आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द का विस्तार कर अनंतज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य को प्रकट करता है - ऐसे अलौकिक भक्त, दातार और वीर को जन्म देनेवाली हे माता ! तू धन्य है, वंदनीय है। लोक में भी कहा जाता है कि हीन आचरणवाले लड़के को जन्म देने के बजाय बाँझ रहना ठीक है। उसी के अनुरूप यहाँ समझना कि पुण्य की रुचि
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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