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________________ भक्तामर प्रवचन हैं। जिसके स्त्री, रोग, उपसर्ग है, वह दिव्य-शक्ति वाला केवलज्ञानी नहीं होता। हे नाथ! वह तो आपके सामने काँच के टुकड़े जैसा है। भगवान की इच्छा बिना अनक्षरी दिव्यध्वनि होती है। प्रगट रूप से कण्ठ, ओष्ठ आदि हिले बिना सर्वांग से वाणी निकलती है। उनके क्रम से बोली जाने वाली भाषा नहीं होती। जिसके क्रमश:खण्ड-खण्ड भाषा हो, उसेखण्ड-खण्ड ज्ञान होता है। जिसके अखण्डज्ञान हो, उसकी वाणी भी अखण्ड ही होती है। उनकी वाणी में एक समय में ग्यारह अंग चौदह पूर्व का रहस्य समाहित हो जाता है। जैसे मणि के सामने काँच की कुछ भी शोभा नहीं है, वैसे ही आपके परिपूर्ण अनन्त केवलज्ञान के सामने अन्य वादियों की कोई महत्ता नहीं है। जैसे कोई पुण्यवान बलशाली राजा सिंह की सवारी करे तो इसमें उसकी क्या महानता है ? इसीप्रकार कोई देवी सिंह पर सवारी करे तो भी क्या ? किसी के हाथ में त्रिशूल हो, कोई कुल, जाति या नाम से देव हो तो इन कारणों से कोई वास्तविक देव नहीं हो सकता। जिसे दिव्य वीतरागता प्रगटी हो, वही सच्चा देव है। जिसने पूर्णानन्द दशा पर सवारी की है और जिसके किंचित् भी रोग एवं विकार नहीं है, जिसके अनक्षरी वाणी बिना किसी के लक्ष्य से होती है, वही सच्चा देव है। कितने ही अज्ञानी जीव अम्बाजी, चक्रेश्वरी, भवानी, भूतनी, शीतला आदि को मानते हैं और तर्क देते हैं कि लौकिक मान्यता के लिए ऐसा करना आवश्यक है। कोई बच्चों की बीमारी के लिए शीतला माता की मनौती करते हैं, कोई वंध्यापन दूर करने के लिए मनौती करते हैं। ऐसे लोग नासमझ हैं। कोई व्यन्तर देवों को वन्दन करते हैं, जबकि देव स्वयं मिथ्यादृष्टि हैं। जो किसी को जगत का कर्ता, रक्षक और संहारक मानता है; वह भी मिथ्यादृष्टि है। उसकी ऐसी मान्यता मिथ्या एवं भ्रमपूर्ण है। जो पुण्य से सुख होना मानता है, वह चैतन्य स्वभाव को नहीं जानता। जिसके राग-द्वेषादि के चिह्न प्रत्यक्ष दिखते हैं। जो शत्रु को मारे एवं भक्ति करनेवाले कोपाले.वह प्रत्यक्ष हीरागी-द्वेषी है। ईश्वर परमात्मा का यह स्वरूप नहीं है। हे सर्वज्ञ ! स्व-पर प्रकाशक, निर्मल ज्ञान जैसा आप में है; वैसा ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि किसी अन्य देव में नहीं है; क्योंकि तेज की सच्ची शोभा महामणि में ही होती है, काँच में नहीं - ऐसी होती है विवेकी भक्त की समझ । काव्य २१ मन्ये वरं हरि - हरादय एव दृष्टा दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि ।।२१।। हिन्दी काव्य (नाराच छन्द) सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया। स्वरूप जाहि देख वीतराग तू पिछानिया।। कछ न तोहि देख के जहाँ तुही विशेखिया। मनोग चित्त-चोर और भूल हूँ न पेखिया ।।२१।। अन्वयार्थ - (नाथ !) हे भगवन् ! (मन्ये) मैं सोचता हूँ कि (हरिहरादयः दृष्टाः) विष्णु और महादेव आदि लौकिक देव हमारे द्वारा पहले देख लिये गये, पहचान लिये गये (एवं वरम्) यह अच्छा ही हुआ [ यत: ] क्योंकि (येषु दृष्टेषु हृदयं त्वयि तोषं एति) जिनके देख लेने पर हमारा हृदय आप में सन्तोष को प्राप्त हो जाता है। (भवता वीक्षतेन किम्) आपको पहले देखने से क्या लाभ था ? (येषु भुवि अन्यः कश्चित्) कि जिसके देखने पर भूमण्डल में अन्य कोई भी [ देव ] (भवान्तरे अपि मनः न हरति) जन्म-जन्मान्तरों में भी मन को नहीं भाता अथवा हृदय को आकर्षित नहीं कर पाता। (विशेष - इस काव्य में ब्याजोक्ति अलंकार है। इसमें विरोध जैसा आभास होता है। यह भी स्तुति करने का एक प्रकार है।) काव्य २१ पर प्रवचन हे नाथ ! यह ठीक ही हुआ कि मैंने कुदेवादिक का स्वरूप पहले से जान लिया, अन्यथा अनर्थ हो सकता था; क्योंकि उनमें राग-द्वेष मौजूद हैं, उनको केवलज्ञान प्रगट नहीं हुआ है। मैंने ऐसे हरि, हरादि को पहले परख लिया है। इस कारण अब मुझे विपरीत स्वरूप में सत्यता का भ्रम नहीं होगा। पूर्ण वीतरागी
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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