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________________ उनके प्रस्तुत प्रवचन जैनपथप्रदर्शक के कहान सन्देश स्तम्भ में जनवरी सन् १९८२ से क्रमश: प्रकाशित होते रहे हैं। पाठकों ने इनसे खूब लाभ भी लिया और सराहा भी । समय-समय पर पत्रों द्वारा प्रोत्साहित भी किया, परन्तु सम्पादन कार्य से मुझे स्वयं आत्मसंतोष नहीं था, क्योंकि मैं जिस रूप में इनका सम्पादन करना चाहता था, कर नहीं सका था। तभी से मेरे मन में यह दृढ़ संकल्प था कि यदि इनका पुस्तकाकार प्रकाशन हुआ तो मैं रही-सही कसर को अवश्य पूरा करूँगा । हर्ष है कि मुझे वह अवसर भी मिला और मैंने परिश्रम की परवाह न करके मूल गुजराती प्रति के आधार पर इनका पुनः नया संस्कार किया, नयी प्रेस कापी तैयार की। इसप्रकार अब मेरी दृष्टि में इसमें भाषा के परिमार्जन और विषयवस्तु के स्पष्टीकरण में पर्याप्त सुधार हो गया है। पूज्य गुरुदेवश्री के अभिप्राय को पूरी तरह अक्षुण्ण रखते हुए विषयवस्तु एवं भावों के स्पष्टीकरण के साथ प्रवचनों की बोलचाल की भाषा को भी हिन्दी वाक्यविन्यास की दृष्टि से साहित्यिक रूप देने का यथासाध्य प्रयास किया है। कहाँ तक सफल हो सका हूँ, इसका निर्णय पाठकों पर ही छोड़ता हूँ । प्रवचनों में जिस पुनरावृत्ति को गुण माना जाता है, साहित्य में वही 'पिष्टपेषण' दोष गिना जाता है; अतः अनावश्यक पुनरावृत्तियों को कुछ कम किया है, परन्तु बहुत कम । इसतरह जैनपथप्रदर्शक में प्रकाशित प्रवचनों का बहुत कुछ कायाकल्प हो गया है। इस बात की चर्चा करना यहाँ इसलिए आवश्यक प्रतीत हुआ कि जो भाई जैनपथप्रदर्शक में इन्हें पढ़ चुके हैं, वे भी पुनः पढ़ें और लाभ लें। अब उन्हें पहले से अधिक आनन्द आएगा और आशातीत लाभ होगा। प्रत्येक काव्य को नये पृष्ठ से प्रारम्भ किया गया है, इसकारण लगभग सभी काव्यों के अन्तिम पृष्ठों पर महत्त्वपूर्ण उद्धरणों का सहज ही अच्छा संकलन हो गया है। काव्यों के अर्थ के साथ शब्दार्थ का भी ज्ञान हो, एतदर्थ अन्वयार्थ दिया है। इस अन्वयार्थ में भी एक विशेषता यह रखी गई है कि यदि कोई संस्कृत के शब्दों को छोड़-छोड़कर सीधा हिन्दी का अर्थ पढ़े तो उसे भावार्थ पढ़ने जैसा आनन्द आयेगा तथा अर्थ भली-भाँति समझ सकेगा। यद्यपि संस्कृत का अन्वयार्थ हिन्दी से कुछ भिन्न होता है, तथापि मैंने जान-बूझकर हिन्दी के अनुरूप अन्वयार्थ किया है; क्योंकि यह हिन्दी के पाठकों को अधिक लाभदायक और उपयोगी रहेगा। इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में निम्न बिन्दुओं पर विशेष शोधपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की गई हैं १. प्रस्तुत स्तोत्र की इतनी लोकप्रियता क्यों ? पढ़-अनपढ़, ज्ञानीअज्ञानी, कवि-साहित्यकार सभी इसी स्तोत्र पर क्यों रीझे; इस सम्बन्ध में अनेक पहलुओं से तथ्यों को उजागर किया गया है। २. अड़तालीस ताले टूटने की कथा दिगम्बरों की मान्यता नहीं है। दिगम्बरों की मान्यता इससे भिन्न है । ३. वीतराग की भक्ति में कर्त्तावाद का आरोपित कथन क्यों ? इस सन्दर्भ में भक्ति एवं स्तुति के स्वरूप का सविस्तार स्पष्टीकरण आदि । हिन्दी के पद्य प्रेमियों की दृष्टि से पाण्डे हेमराजजी का सबसे पुराना हिन्दी पद्यानुवाद देना ही उपयुक्त लगा। यद्यपि हिन्दी में अनेक पद्यानुवाद हुए हैं, जो एक से बढ़कर एक हैं; तथापि प्रस्तुत पद्यानुवाद की भाषा व लय में जो लालित्य है, वह अन्यत्र दुर्लभ था; तथा यह सहज ही सबकी जिह्वा पर चढ़ा हुआ है और सरल भी है। यद्यपि यह सब कार्य पूर्ण सावधानी व सतर्कता से हुआ है, तथापि 'को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे' की उक्ति के अनुसार यदि कहीं कोई स्खलन हुआ हो तो मेरा ध्यान आकर्षित करने का सानुरोध आग्रह है। जो सुझाव व संशोधन प्राप्त होंगे, उन पर गम्भीरता से विचार किया जायेगा और यदि आवश्यक हुए तो आगामी संस्करण में सुधार करने का प्रयास रहेगा। - पण्डित रतनचन्द भारिल्ल
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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