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प्रस्तावना पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है। इसमें अनेक भ्रान्तियों का सविस्तार खुलासा करके, उनका समुचित समाधान करने का प्रयास किया गया है। आशा है प्रबुद्धजन लाभान्वित होंगे।
इस पुस्तक की लेजर टाइप सैटिंग श्री श्रुतेश सातपुते शास्त्री डोणगाँव द्वारा की गई है तथा इस प्रकाशन को इतने सुन्दर ढंग से प्रकाशित करने का श्रेय प्रकाशन एवं प्रचार विभाग के प्रभारी श्री अखिल बंसल को है, जिन्होंने मुद्रण व्यवस्था में कम से कम खर्च में सुन्दर कार्य सम्पन्न किया है। इस सहयोग के लिए ट्रस्ट उनका हृदय से आभारी है।
प्रस्तुत प्रकाशन की कीमत कम करने हेतु जिन महानुभावों ने अपना आर्थिक सहयोग प्रदान किया है, उनकी सूची अन्यत्र प्रकाशित की गई है। हम सभी दानदाताओं का हृदय से आभार मानते हैं।
अन्त में, हम सबके शिरोमणि आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ, जिन्होंने तत्त्वोपदेश के द्वारा हमें सच्चे मोक्षमार्ग का यथार्थ विवेक जागृत कराया । हम सब उनके भक्तामर स्तोत्र पर हुए प्रवचनों के माध्यम से अपने तत्त्वज्ञान को निर्मल करें - यही भावना है।
- ब्र. यशपाल जैन प्रकाशन मंत्री : पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर
सम्पादकीय आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी जहाँ अध्यात्म-अमृत में आकण्ठ निमग्न थे, वहीं उनका हृदय भक्तिरस से भी लबालब (भरचक) भरा हुआ था। वे प्रतिदिन प्रातः एवं मध्याह्न आधा-आधा घंटा नियमित जिनालय में जाकर जिनेन्द्र भक्ति एवं स्तुति किया करते थे।
उन्होंने आध्यात्मिक ग्रन्थों की भाँति ही 'भक्तामर' एवं 'विषापहार' जैसे भक्तिपरक स्तोत्रों पर भी उत्साहपूर्वक सरस प्रवचन किए, जो उनकी देवशास्त्र-गुरु के प्रति भक्तिभावना को प्रगट करते हैं।
यद्यपि वे प्रवचनों में जिनेन्द्र भगवान के गुणगान करते-करते भक्तिभावना से अभिभूत होकर गद्गद हो जाते थे, तथापि वचनाभिव्यक्ति में भक्तहृदय भावुक कवियों की भाँति अतिशयोक्ति नहीं करते थे; अपितु भक्तिप्रधान कथनों में आये हुए कर्तृत्वादि के आरोपित कथनों का यथास्थान उचित स्पष्टीकरण करने में सदा सावधान रहते थे।
स्वामी समन्तभद्राचार्य की भाँति गुरुदेवश्री के बुद्धिपक्ष पर उनका हृदय हावी नहीं हो सका था। उनकी प्रस्तुत सम्पूर्ण प्रवचन शृंखला में इस बात के दर्शन होते हैं।
उदाहरणार्थ "आपके भक्तों को अग्निभय नहीं होता" - इसके स्पष्टीकरण में गुरुदेवश्री का निम्न कथन दृष्टव्य है - 'प्रलयकाल के तूफान सदृश वायुवेग से प्रकुपित प्रचण्ड अग्नि तो पुण्योदय से धर्मात्माओं को स्पर्श करती ही नहीं है; किन्तु जो धर्मात्मा ज्ञानानन्द आत्मा में मग्न हैं, उन्हें कषायाग्नि भी स्पर्श नहीं करती।'
पुनश्च 'कदाचित् धर्मी जीवों को भी असाता के उदय से बाह्य में ऐसा वातावरण (संयोग) बन भी जावे, तथापि अन्तर में अकषाय स्वभावी आत्मा की शरण लेकर वे निर्भय रहते हैं।'२
इसप्रकार उन्होंने पूर्ण सावधानी पूर्वक सम्बन्धित कथनों की नयविवक्षा का आवश्यक स्पष्टीकरण यथास्थान खुलकर किया है। १-२, यही पुस्तक (भक्तामर प्रवचन), पृष्ठ : १३१