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प्रस्तावना
प्रस्तावना
पण्डित रतनचन्द भारिल्ल शास्त्री, न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न,
एम.ए., बी.एड. सम्पूर्ण साहित्य में भक्तामर सर्वाधिक प्रचलित स्तोत्र है।
मुनि श्री मानतुङ्गाचार्य द्वारा रचित भक्तिरस का यह अनुपम स्तोत्र युगों-युगों से कोटि-कोटि भक्तों का कण्ठाहार बना हुआ है। क्या दिगम्बर और क्या श्वेताम्बर - सभी लोग इस स्तोत्र द्वारा प्रतिदिन वीतरागी परमात्मा की स्तुति, भक्ति एवं आराधना करके अपने जन्म-जन्मान्तरों के पापों को क्षीण करते रहे हैं। लाखों मातायें-बहिनें तो आज भी ऐसी मिल जायेंगी, जो भक्तामर का पाठ किये बिना जल-पान तक नहीं करतीं। इस काव्य के प्रति जन-सामान्य की इस अटूट श्रद्धा और लोकप्रियता के अनेक कारण हैं।
तत्त्वज्ञानियों की श्रद्धा का भाजन तो यह इसलिए है कि इसमें निष्काम भक्ति की भावना निहित है। ऐसा कहीं कोई संकेत नहीं मिलता है, जिसके द्वारा भक्त ने भगवान से कुछ याचना की हो या लौकिक विषय-वाञ्छा की हो।
जहाँ भय व रोगादि निवारण की चर्चा है, वह सामान्य कथन है, कामना के रूप में नहीं है। जैसे - कहा गया है कि हे जिनेन्द्र ! जो आपकी चरण-शरण में आता है; उसके भय व रोगादि नहीं रहते, सभी प्रकार के संकट दूर हो जाते हैं।
इसीप्रकार 'जब परमात्मा की शरण में रहने से विषय का विषय नहीं चढ़ता तो सर्प का विष क्या चीज है ? जब मिथ्यात्व का महारोग मिट जाता है तो जलोदरादि रोगों की क्या बात करें ?'२
इसमें याचना कहाँ है ? यह तो वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन है। जो विषयकषाय की प्रवृत्ति छोड़कर निष्काम भाव से वीतराग परमात्मा के गुण-गान एवं आराधना करता है, उसकी मन्द कषाय होने से पाप स्वयं क्षीण हो जाते हैं एवं शुभभावों से सहज पुण्य बँधता है। पुण्योदय से बाह्य अनुकूल संयोग होते हैं और प्रतिकूलतायें स्वत: समाप्त हो जाती हैं। यह तो वस्तुस्थिति है। १-२. देखिए, काव्य ४५ एवं ४७, यही पुस्तक
जैसे फल से लदे वृक्ष के नीचे जो जायेगा, उसे फल तो मिलेंगे ही; न चाहते हए भी छाया भी सहज उपलब्ध होगी। उसीप्रकार वीतराग देव की शरण में वीतरागता की उपलब्धि के साथ पुण्यबंध भी होता ही है। कभी-कभी धर्मात्माओं को पूर्व पापोदय के कारण प्रतिकूलता भी आती है; तब भी ज्ञानी खेद नहीं करते
और भक्तिभावना के प्रति अश्रद्धा भी नहीं करते, क्योंकि वे निर्वाञ्छक धर्माराधना करते हैं और वस्तुस्वरूप को सही समझते हैं।
साहित्यिक रुचिवाले इस काव्य की साहित्यिक सुषमा से प्रभावित और आकर्षित होते हैं; क्योंकि इसकी सहज बोधगम्य भाषा, सुगमशैली, अनुप्रासादि अलंकारों की दर्शनीय छटा, वसन्ततिलका जैसे मधुरमोहक गेय छन्द, उत्कृष्ट भक्ति द्वारा प्रवाहित शान्त रस की अविछिन्न धारा - इन सबने मिलकर इस स्तोत्र को जैसी साहित्यिक सुषमा प्रदान की है, वैसी बहत कम स्तोत्रों में मिलती है। इन सबके सुमेल से यह काव्य बहुत ही प्रभावशाली बन गया है।
लौकिक विषय वांछा की रुचिवालों को भी भट्टारकीय युग ने इस काव्य को आधार बनाकर विविध प्रकार के चमत्कारिक साहित्य का सजन कर दिया है, जिसमें मंत्रों-तंत्रों द्वारा नाना प्रकार की ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ प्राप्त होने की चर्चायें हैं। कल्पित कथाओं द्वारा भी तात्कालिक चमत्कारों को खूब चर्चित किया है।
सम्भव है कि तत्कालीन परिस्थितियों में इनकी कुछ उपयोगिता एवं औचित्य रहा हो, पर आज तो कतई आवश्यकता नहीं है; तथापि वह भी इसकी लोकप्रियता का एक कारण है। इसतरह हम देखते हैं कि आज पढ़-अनपढ़ सभी प्रकार के लोग, जो धार्मिक विषय का क, ख, ग भी नहीं जानते; वे भी भक्तामरस्तोत्र का पाठ या अखण्ड पाठ करते-कराते रहते हैं।
भक्ति और स्तोत्र के स्वरूप को दृष्टिगत रखते हुए यदि भक्तामर स्तोत्र की विषयवस्तु पर विचार किया जाय तो स्तोत्रकार ने इस स्तोत्र द्वारा अपने इष्टदेव - वीतरागी सर्वज्ञ परमात्मा की आराधना करते हुए भक्तिवशात् उनमें कर्तृत्व का आरोप तो कथंचित किया है, किन्तु किसी भी छन्द में कहीं कोई याचना नहीं की, मात्र निरपेक्ष गुणगान ही किया है।
वीतरागी परमात्मा में कर्तृत्व का आरोप यद्यपि विरोधाभास है, तथापि स्तोत्र साहित्य में यह क्षम्य है; क्योंकि स्तवन या स्तोत्र की परिभाषा या स्वरूप बताते हुए आचार्यों ने लिखा है - "भूताभूतगुणोद्भावनं स्तुति:" अर्थात् आराध्य में जो गुण हैं और जो नहीं भी हैं, उनकी उद्भावना का नाम ही स्तुति है। भक्ति के