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________________ भक्तामर प्रवचन पुण्य को भिन्न-भिन्न जानकर ज्ञान को ही उपादेय मानते हैं, पुण्य को नहीं। भगवान के शरीर की कोई उपमा नहीं है। सर्वज्ञ की सत्ता को स्वीकार करनेवाला भगवान के सिवा अन्य किसी को नहीं देखता। चैतन्य ज्ञानानन्द स्वभाव में से पूर्णदशा प्रगट हुई है, ऐसे जिनेन्द्रदेव को किसी की उपमा ठीक नहीं लगती। आप बाह्य में पुण्य से और अन्तर में पवित्रता से महान लगते हैं। इस स्थिति को देखकर हम स्तंभित होते हैं। जगत के सर्वोत्कृष्ट परमाणु आपके शरीर में समाविष्ट हैं। अन्तरंग में शान्ति व्याप्त है। उसकी छाया आपकी दिव्य देह पर पड़ती है, इससे आपकी महिमा व्यक्त होती है। जैसे सरोवर के पास की हवा में शीतलता होती है, वैसे ही आपके शरीर के अवलोकन मात्र से शान्ति प्राप्त होती है। काव्य १३ वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि। निःशेष - निर्जित - जगत्रितयोपमानम् । बिम्बं कलङ्क-मलिनं क्व निशाकरस्य यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम् ।।१३।। हिन्दी काव्य कहँ तुम मुख अनुपम अविकार, सुर-नर-नाग-नयन-मनहार। कहाँ चन्द्र-मण्डल सकलंक, दिनमें ढाक-पत्र सम रंक।।१३।। अन्वयार्थ - (सुर-नर-उरग-नेत्र-हारि) देव, मनुष्य और भवनवासी नागकुमार जाति के देवेन्द्र (धरणेन्द्र) आदि के नेत्रों को हरण करनेवाला (निःशेषनिर्जित-जगत् त्रितय-उपमानम्) सम्पूर्ण रूप से तीनों लोकों के उपमानों को जीतनेवाला अर्थात् उपमा रहित (ते वक्त्रं क्व) तुम्हारा मुख-मण्डल कहाँ और (कलङ्क-मलिनं निशाकरस्य बिम्ब क्व) कलङ्क से मलिन चन्द्रमा का बिम्ब कहाँ ? (यत् वासरे) जो दिन में (पाण्डु-पलाश-कल्पं भवति) जीण-शीर्ण हुए टेसू के पत्र के समान फीका और पीला पड़ जाता है। सो देवन को देव जगत में सो देवन को देव...। जासु चरन परसें इन्द्रादिक, होय मुकति स्वयमेव ।।१।।टेक।। जो न क्षुधित, न तृषित, न भयाकुल, इन्द्रीविषय न वेव । जनम न होय, जरा नहिं व्याषे, मिटी मरण की टेव ।।२।। जगत में सो देवन को देव...। जाके नहिं विषाद, नहिं विस्मय, नहिं आठों अहमेव । राग-विरोध-मोह नहिं जाके, नहिं निद्रा परसेव ॥३॥ जगत में सो देवन को देव...। नहिं तन रोग, न श्रम, नहिं चिंता, दोष अठारह भेव । मिटे सहज जाके ता प्रभु की, करत 'बनारसी' सेव ॥४॥ जगत में सो देवन को देव...। - पण्डित बनारसीदास : बनारसीविलास, पृष्ठ : २३२ काव्य १३ पर प्रवचन हे भगवन् ! सर्वज्ञपरमात्मा ! देवाधिदेव ! आपका मुख मण्डल देवेन्द्रोंविद्याधरों के मुख से भी अधिक सुन्दर है। आपके मुख एवं शरीर की अपूर्व सुन्दरता की तुलना किसी से नहीं की जा सकती है। ऐसा नियम है कि तीर्थंकरों के पुण्य का अनुभाग उत्कृष्ट हो जाता है। __ हे नाथ ! आपका मुख-मण्डल इतना आकर्षक है कि देव, मनुष्य और धरणेन्द्र के नेत्र भी आपको टकटकी लगाकर निरन्तर देखते रहते हैं । हे भगवन् ! आपके शरीर के परमाणु परमशांत हैं। लोग बाह्य पदार्थों का वर्णन इसप्रकार
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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