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भक्तामर प्रवचन
करते हैं कि हमारा मकान अच्छा है, हमारी स्त्री सुन्दर है; किन्तु सर्वज्ञ भगवान की तुलना में वे कुछ भी नहीं हैं।
हे नाथ ! आपने सम्पूर्ण रूप से तीन लोक की समस्त उपमाओं को जीत लिया है। आपके मुख ने भी जगत की शोभा को जीत लिया है। अज्ञानी शरीर के अवयवों की इसप्रकार उपमा देते हैं कि नाक गरुड़ जैसी, आँखें हिरण जैसी, दाँत अनारदाने जैसे हैं; परंतु प्रभु ! तुम्हारे शरीर को देखने से ये सब उपमायें पराजित हो जाती हैं। भगवान का सातिशय पुण्य भिन्न जाति का है। किसी भी पदार्थ से उसकी उपमा नहीं दी जा सकती। सुख के लिए कमल की उपमा भी उचित प्रतीत नहीं होती। सूर्य दिन में एवं चन्द्रमा रात्रि में प्रकाशित होता है, जबकि आपका मुख दिन-रात प्रकाशमान रहता है। जब वासुदेव के शरीर का बल हजार सिंह के बराबर होता है तो फिर तीर्थंकर के बल की तो क्या बात करनी ? वे तो अतुल्य बल के धनी होते हैं और चौबीसों घण्टे सौन्दर्यवान रहते हैं।
आपके पूर्ण पवित्रता प्रगट हुई है, इसलिए आपका शरीर भी उतना ही उत्तम होता है। वस्तुत: आपके मुख को चन्द्रमा की उपमा देने वाला भूल करता है। चन्द्रमा कलङ्क सहित दिखता है, जबकि भगवन् ! आप चरम शरीरी होने के कारण निष्कलंक हैं। आपकी आत्मा एवं काया में भी किसी प्रकार का कलङ्क नहीं है।
काव्य १४ संपूर्ण-मण्डल-शशाङ्क-कला-कलाप
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लङ्घयन्ति । ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर - नाथमेकं
कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम् ।।१४ ।।
हिन्दी काव्य पूरन-चन्द्र-ज्योति छविवंत, तुम गुन तीन जगत लंघत । एक नाथ त्रिभुवन आधार, तिन विचरत को करै निवार ।।१४।।
अन्वयार्थ - (जगदीश्वर !) हे त्रिलोकी नाथ ! (सम्पूर्ण-मण्डलशशाङ्क-कला-कलाप-शुभ्रा) पूर्णमासी के चन्द्रमण्डल की कलाओं के सदृश समुज्ज्वल (तव गुणा:) आपके गुण (त्रिभुवनं लयन्ति) तीनों लोकों को उल्लंघन करते हैं; क्योंकि (ये एकं नाथं संश्रिताः) जिन्होंने एक, अद्वितीय, त्रिलोकीनाथ का आश्रय लिया है, (तान्) उन्हें (यथेष्टं संचरतः कः निवारयति) स्वेच्छानुसार सर्वत्र विचरण करने से कौन रोक सकता है ! कोई भी नहीं। इसी कारण मानो आपके अनन्त गुण त्रिभुवन में सर्वत्र फैल रहे हैं, व्याप्त हो रहे हैं। तात्पर्य यह है कि त्रिलोकीनाथ जिनेश्वरदेव का गुणानुवाद सर्वत्र सदैव होता रहता है तथा उनके द्वारा प्रतिपादित वस्तुस्वरूप सर्वत्र सदैव जयवंत वर्त रहा है।
काव्य १४ पर प्रवचन हे नाथ ! आप पूर्ण चन्द्रमा की कलाओं के समान स्वच्छ हो, आपकी पर्याय भी निर्मल है। आपकी कीर्ति समस्त लोक में फल रही है। आपके अंतर में समस्त गुण विकसित हो चुके हैं। आपके जन्म-कल्याणक के समय तीनो लोकों के समस्त जीवों को दो घड़ी के लिए शांति मिलती है। सातवें नरकवासी
को निकसै निज भौनसौं हम बैठे अपनी मौनसौं, दिन दश के महिमान जगत जन बोलि बिगारे कौनसौं ।।१।।टेक ।। गये विलाय भरम के बादर, परमारथ-पथ पीनसों। अब अंतरगति भई हमारी, पर, राधा-रौनसी ।।२।। प्रगटी सुधा-पान की महिमा, मन नहिं लागै वीनसों। छिन न सुहाय और रस फीके, रचि साहिब के लौनसीं ।।३।। रहे अघाय पाय सुखसंपति, को निकसै निज भौनसौं। सहजभाव सद्गुरु की संगति, सुरझै आवागौनसौं ।।४।।
- पण्डित बनारसीदासजी: बनारसी विलास. पष्ठ २३२