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________________ भक्तामर प्रवचन वस्तुत: तो यह आत्मा के वीतराग, सर्वज्ञ स्वभाव की भक्ति है, किन्तु तीर्थंकर नामकर्म के निमित्त से उन्हें परमौदारिक शरीर मिला है। उस शरीर के अणु-अणु में भी परम शांति दिखती है। यद्यपि ज्ञानी को पुण्य के फलस्वरूप उत्कृष्ट संयोग मिलते हैं, किन्तु वे उनकी प्राप्ति की आशा नहीं करते। जिसतरह जवाहरों से जड़ित आभूषणों से स्त्रियाँ सुशोभित होती हैं; उसीतरह भगवान भी तीनलोक की शोभा बढ़ानेवाले उत्कृष्ट आभूषण हैं। भगवान के शरीर के परमाणु भी रागरहित हैं और उनका आत्मा भी राग रहित हुआ है। जैसे समुद्र में कितनी भी वर्षा हो, तब भी अतिक्रमण नहीं होता, वह गंभीर रहता है; वैसे ही भगवान हमेशा गंभीर रहते हैं। वे केवलज्ञान होने के पूर्व जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी होते हैं, तथापि किसी के पूछे बिना बोलते नहीं हैं; किसी को पूछना भी हो तो उनकी गंभीरता देखते हुए कोई पूछने की हिम्मत नहीं करता। जब श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्नकुमार को कोई हरण करके ले जाता है, तब रुक्मणी आदि मातायें विलाप करती हैं। भगवान नेमिनाथ के अत्यन्त निकट होते हुए भी प्रद्युम्न की तलाश के लिए नारद को विदेहक्षेत्र में सीमन्धर प्रभु के पास भेजा गया। नेमिनाथ भगवान समुद्रवत् गंभीर थे, वे संसार में होते हुए भी गंभीर थे तो फिर जिनके केवलज्ञान दशा प्रगट हुई हो, उनके अंतरंग में उपशमरस का क्या कहना? यदि हमें वेशान्तरस से पूर्ण परमात्मा दिखें तो इसमें क्या आश्चर्य ? भरतक्षेत्र में दस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम काल में २४ तीर्थंकर उत्कृष्ट पुरुष होते हैं। उनके जन्म के समय ज्योतिष के उत्कृष्ट शुभग्रहों का संयोग होता है। उनके शरीर में जैसे पुण्य के उत्कृष्ट, शान्त, सुन्दर परमाणु एकत्रित होते हैं; वैसे अन्य किसी को नहीं होते। ऐसा अनुपम शरीर एवं सुन्दर रूप तीर्थंकर भगवान के होता है। संसार में जितने भी उत्कृष्ट, शान्त, उज्वल एवं उत्तर परमाणु थे, वे शान्तरस हो शरीररूप होकर उनके पास आते हैं। अढ़ाईद्वीप के मनुष्यक्षेत्र में अधिक से अधिक १७० तीर्थंकर होते हैं। उनके शरीररूप परमाणुओं की उत्कृष्ट शुभदशा हुई, वह अपने उपादान के काल में ही हुई है। जगत में भगवान के शरीर के योग्य परमाणु इतने ही थे। आपके ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यरूप अनन्त चतुष्टय प्रगट हुआ, उससे काव्य १२ अधिक आनन्द अन्य के नहीं होता। आपके शरीर के रजकणों में शान्तरस भासता है- ऐसा अढ़ाईद्वीप में अन्यत्र नहीं होता। आपको पवित्रता, पुण्य और पुण्य के फल का ज्ञान तो है, किन्तु उनके प्रति कुछ भी राग नहीं है। आपकी उपमा किसी से नहीं दी जा सकती, क्योंकि आपके केवलज्ञानादि दशा प्रगटी, उससे अधिक निर्मलता किसी के नहीं होती है। पुण्य की पूर्णता पूर्ण पवित्रता होने से भले हो, पर आप पुण्य छोड़कर परमात्मा हुए हो। पाप का रस एवं स्थिति मोक्षमार्ग में चलनेवाले धर्मी जीव के घटती जाती है और शुभायु के अलावा पुण्य की स्थिति भी घटती है, किन्तु पुण्य का रस बढ़ता है। पुण्य का अनुभाग शुद्ध उपयोग से घटता नहीं, किन्तु बढ़ता है। जैसे-जैसे ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चारित्र आदि की वृद्धि होती है; वैसे-वैसे पुण्य का रस बढ़ता है। जिस जीव के तीर्थकर प्रकृति न हो, उनके तेरहवें गुणस्थान में ज्ञानादिक की पूर्णता होती है और तभी शरीर परमौदारिक होता है। उनके परमाणुओं में उत्कृष्ट साता और दिव्य अनुभाग का परिपूर्ण फल आता है और वह भी चौदहवें गुणस्थान में छूट जाता है। हे जिनेन्द्र ! जिन परमाणुओं से आपके शरीर की रचना हुई है, वे परमाणु जगत में उतने ही थे। जब पुण्यवंत जीव हों, तब पत्थरों में भी हीरे-नीलम मिलते हैं। उन्हें गृहस्थावस्था में अपनी प्रजा पर कर (टैक्स) नहीं लगाना पड़ता, क्योंकि वे सातिशय पुण्य की सम्पत्ति सहित जन्म लेते हैं। इसलिए वे प्रजा के पास से कुछ नहीं लेते, बल्कि सुख-सम्पत्ति देते ही हैं। उनके पुण्य की महिमा उनकी पवित्रता के कारण मानने में आती है, क्योंकि उनके ही पुण्य की पूर्णता है। जब पूर्णता हुई, तब पुण्य पूर्णरूप होकर छूट जाता है। हे प्रभो! आपको फिर कभी संसार में नहीं आना है, आप बलदेवों की अपेक्षा विशेष पुण्यवान हैं; इसलिए लोक में अद्वितीय हैं। आपके अनन्त चतुष्टय की बराबरी कोई अन्य नहीं कर सकता। आपके शरीर की तुलना में और किसी का शरीर नहीं टिक सकता। ऐसी स्तुति करने से बंधन के ताले स्वयं टूटते हैं और आपके भक्त आपकी स्तुति करके बन्धन-मुक्त हो जाते हैं, किन्तु धर्मात्मा ज्ञान और
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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