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________________ भक्तामर प्रवचन टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं कि भगवन् ! आप मोक्षमार्ग के प्रणेता हैं। अहो! कितनी निःशंक दृढ़ता है। आचार्य श्री मानतुङ्ग का भक्त हृदय कहता है कि हे नाथ ! मैंने आपको ही अपना नेता बनाया है एवं आपको ही स्वामी के रूप में स्वीकार किया है। ऐसे मुझ सेवक को अन्यत्र संतोष नहीं होता । क्षीरसमुद्र अढ़ाई-द्वीपसे बाहर है। वहाँ दूध जैसा पानी है। वह मछली, मैल आदि से रहित होता है। अढ़ाईद्वीप के बाहर कोई मनुष्य नहीं होता, इसलिए उसमें कोई स्नान नहीं करता । इन्द्र उस जल से भगवान का जन्माभिषेक करते हैं। यदि किसी को क्षीरसमुद्र का ऐसा श्रेष्ठ जल पीने को मिले तो वह उसे छोड़कर लवणसमुद्र का खारा जल क्यों पीना चाहेगा ? प्रभु! आप उपशमरस के कन्द हैं, अतः आपके भक्तों को कुगुरु-कुदेव-कुशास्त्र में संतोष नहीं मिलता । दूध-पाक जैसा मिष्ठान्न जिसे मिले, वह लाल ज्वार की भूसी की रोटी क्यों खाये ? उसीप्रकार जिसने आपका बाह्य और अभ्यन्तर निर्दोष सुन्दर रूप देख लिया है, वह अन्य किसी लौकिक सुन्दरता में संतोष नहीं पा सकता। काव्य १२ यैः शान्त-राग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं निर्मापितस्त्रिभुवनैक-ललाम-भूत । तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ।।१२।। हिन्दी काव्य प्रभु तुम वीतराग गुन-लीन, जिन परमाणु देह तुम कीन । हैं तितने ही ते परमानु, यातँ तुम-सम रूप न आनु ।।१२।। अन्वयार्थ - (त्रिभुवन एक-ललाम-भूत) हे त्रैलोक्य शिरोमणि ! (यैः शान्त-राग-रुचिभिः परमाणुभिः) जिन प्रशान्त रस से युक्त सुन्दर राग रहित परमाणुओं से (त्वं निर्मापितः) आपका परमौदारिक शरीर निर्मित हुआ है, (ते अणवः अपि खलु तावन्त: एव) वे परमाणु भी वस्तुत: उतने ही (आसन्) थे। (यतः) क्योंकि (पृथिव्यां ते समानम्) समस्त पृथ्वी तल पर आपके समान (अपरं रूपं न हि अस्ति) अन्य किसी का ऐसा सुन्दर रूप ही नजर नहीं आता। काव्य १२ पर प्रवचन तीर्थंकरदेव की पवित्र दशा की तो क्या बात करें ? उनका तो पुण्य भी उत्कृष्टतम होता है और शरीर भी परम औदारिक होता है। अत: उनके दर्शन मात्र से प्रमोद होता है। हे नाथ! आप ही तीन लोक के पवित्र आभूषण हो। आपका आत्मा रागरहित, अविकारी, परम शान्त रस से भरपूर है। वह परम उपशम रस आपके शरीर के परमाणुओं की छाया में भी झलकता है। दर्शक उनके पास आते हैं तो उनके प्रभा मण्डलों में दर्शकों को अपने सात भव दृष्टिगोचर हो जाते हैं (पहले के तीन भव, एक वर्तमान भव एवं आगामी तीन भव) और यदि भविष्य में कम भव रह गये हों तो उतने कम दिखायी देते हैं। वीतराग पूजा का फल लोपे दुरित हरै दु:ख संकट; देवे रोग रहित शुचि देह । पुण्य भंडार भरे जश प्रगटै; मुकति पंथ सौं करै सनेह ।। रचै सुहाग देय शोभा जग; परभव पहुँचावे सुर गेह। दुर्गति बन्ध दलमलहि 'बनारसि' वीतराग पूजा फल ऐह ।। देवलोक ताको घर आँगन; राजरिद्धि सेवै तसु पाय। ताकेतन सौभाग्य आदि गुन; केलि विलास करै नित आय। सो नर तुरत तरै भव सागर; निर्मल होय मोक्ष पद पाय। द्रव्यभाव विधि सहित 'बनारसि'; जो जिनवर पूजै मनलाय।। - पण्डित बनारसीदासजी : बनारसीविलास, पृष्ठ : २२
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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