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________________ काव्य १९ दृष्ट्वा भवन्तमनिमेष - विलोकनीयं नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः । पीत्वा पयः शशिकर - द्युति- दुग्ध-सिन्धोः क्षारं जलं जल- निधेरसितुं क इच्छेत् ।। ११ ।। हिन्दी काव्य इकटक जन तुमको अविलोय, अवरविषै रति करै न सोय। को करि छीर - जलधि जल-पान, क्षार नीर पीवै मतिमान ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ - [हे प्रभु] (अनिमेष - विलोकनीयं) बिना पलक झुकाये निरन्तर दर्शन करने योग्य (भवन्तं दृष्ट्वा ) आपको देखकर (जनस्य चक्षुः ) मनुष्य के नेत्र (अन्यत्र तोषम् ) और कहीं पर संतोष को (न उपयाति) प्राप्त नहीं करते (शशिकर-द्युति: दुग्ध-सिन्धो पयः पीत्वा) चन्द्रमा की किरणों के समान क्षीरसागर का उज्ज्वल जल पीकर (क: जलनिधेः क्षारं जलं असितुं इच्छेत्) ऐसा कौन पुरुष होगा जो समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा ? काव्य ११ पर प्रवचन हे नाथ! जिसने एकटक होकर यानी टकटकी लगाकर आपको एक बार भी देख लिया है, उसके नेत्र अन्यत्र संतोष प्राप्त नहीं करते। जो आपको एक बार देख लेता है, पहचान लेता है; वह फिर निरन्तर आपको ही देखना चाहता है। वह आपका सच्चा भक्त हो जाता है। आपके भक्त को यह भान है कि प्रत्येक आत्मा ज्ञानानन्दस्वभावी है, अतः उसका दर्शन करना भी सफल कहा जाता है। भक्त के अंतरंग में आराधना का अप्रतिहत भाव है, जो कभी नष्ट नहीं होता । यद्यपि उसे पुण्य एवं निमित्त की उपादेयता बिलकुल नहीं है, तथापि सनिमित्तों बहुमान आये बिना भी नहीं रहता। जो स्वभाव को गौण करे और व्यवहार को मुख्य करे, वह तो आपका भक्त ही नहीं है; किन्तु स्वभाव को मुख्य रखकर ५५ भूमिकानुसार व्यवहार भी रहता ही है इसमें किसे आपत्ति हो सकती है ? अर्थात् किसी को भी नहीं। जो ऐसा नहीं मानता, वह निश्चय - व्यवहार दोनों को नहीं जानता । काव्य ११ प्रभु ! जन्म के समय आपका रूप इतना सुन्दर था कि तीन ज्ञान का धारी शक्रेन्द्र भी आपको देखकर तृप्त नहीं होता था, तब आपके आत्मा की तो बात ही क्या करनी ? जिसे शुभराग का भी आदर नहीं है, मात्र चैतन्यस्वभाव का ही आदर है; ऐसे ज्ञानी पुरुषों को कुदेव - कुगुरु और कुशास्त्र से सन्तोष कैसे मिल सकता है ? हे नाथ ! आपकी बाह्याभ्यन्तर सुन्दरता बहुत है। पूर्ण पवित्रता प्रकट होने काल आने के पूर्व शुभराग आता है। उस समय के बँधे कर्मों के उदयकाल में शरीर परम औदारिक होता है। तीर्थंकर भगवान के ऐसे शरीर को देखकर इन्द्र भी तृप्त नहीं होता । हे त्रिलोक शिरोमणि ! जिसने सम्यग्ज्ञान रूपी नेत्रों से आपको एकाग्रदृष्टि से देख लिया है, उसे स्वप्न में भी संसार, शरीर और भोगों में उपादेयपना नहीं होता। जब भक्त मोक्षमार्ग की निश्चय आराधना का आराधक होता है, तब सहचारी होने से व्यवहार रत्नत्रय पर निमित्तत्व का आरोप किया जाता है, किन्तु अन्य किसी पर नहीं । हे नाथ! आपका भक्त आपको ही एकटक देखता है। उसीप्रकार जैसे कि नाटक की रुचिवाला नाटक देखते समय मंच की ओर ही देखता है। जिसमें रस है, उसी में एकाकार वृत्ति काम करती है; उसीप्रकार जिसको वीतराग स्वभाव में रुचि है, उसकी ऐसी ही वृत्ति होती है। हे नाथ! हम तो केवल आपको ही निर्निमेष देखते हैं। विकल्प उठे तो भी हमारा चित्त अन्यत्र नहीं दौड़ता, अन्य किसी रागी देव का आदर नहीं करता। हे प्रभु ! हमारा मन आपके सिवाय अन्यत्र स्थिर नहीं होता। मुझे आप में सन्तोष मिला, अतः अब मुझे राग में या अन्यत्र संतोष नहीं मिलता। चरित्र की कमजोरी से राग की वृत्ति उठती है, किन्तु मन को वहाँ संतोष नहीं मिलता। मेरे चित्त को तभी संतोष मिलता है, जब पूर्ण स्वभाव पर दृष्टि हो । प्रवचनसार के
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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